अमेरिका और मिस्र की यात्रा से लौट कर प्रधानमंत्री ने उच्चस्तरीय बैठक बुलाई। उसमें उन्होंने मणिपुर में ईंधन और जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति बहाल करने और स्थिति को सामान्य बनाने के उपायों पर अमल करने का निर्देश दिया। मणिपुर में हिंसा भड़के दो महीने होने को हैं। दस हजार से अधिक लोग विस्थापित हैं। सौ से ज्यादा लोगों की जान चली गई है।
सैकड़ों घायल हैं। हजारों दुकानें, घर, मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर जला दिए गए हैं। इसे लेकर कुछ दिनों पहले सर्वदलीय बैठक भी हुई, जिसे लेकर विपक्षी दलों का आरोप है कि दस मिनट भी बातचीत नहीं हुई और बिना किसी सलाह के समाप्त हो गई। इसलिए प्रधानमंत्री की बुलाई उच्चस्तरीय बैठक का मणिपुर की स्थिति पर कितना असर पड़ेगा, देखने की बात है।
दरअसल, मणिपुर इस वक्त नाजुक दौर में पहुंच चुका है। फिर भी मणिपुर सरकार उस पर परदा डालने का प्रयास ही करती देखी जा रही है। कहा जा रहा है कि स्थिति धीरे-धीरे सामान्य हो रही है। सरकारी कर्मचारियों को काम पर लौटने का आदेश दिया गया है। मगर हकीकत यह है कि अब महिलाएं भी वहां सुरक्षाबलों के विरोध में सड़कों पर उतर आई हैं। कुकी और मैतेई चरमपंथियों के बीच चल रहा जातीय संघर्ष गृहयुद्ध का रूप लेता जा रहा है।
ऐसी स्थिति में केवल बैठकों से कोई स्थायी समाधान शायद ही निकले। यह समझ से परे है कि केंद्र और राज्य सरकार ने वहां की स्थित से निपटने के लिए व्यावहारिक उपाय तलाशने के बजाय क्यों दोनों समुदायों को खुद इसका समाधान तलाशने के लिए छोड़ दिया है। इस बीच सरकार पर कई गंभीर आरोप लगे। वहां के शस्त्रागार से करीब चौबीस सौ स्वचालित हथियार और भारी मात्रा में कारतूस-गोला-बारूद लूट लिया गया।
विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि सरकार ने जानबूझ कर वे हथियार लुटवाए। मगर इस पर सरकार की तरफ से कोई सफाई नहीं आई। अब कहा जा रहा है कि मणिपुर की वर्तमान स्थिति के लिए कांग्रेस जिम्मेदार है। विचित्र है कि जिस वक्त मणिपुर जल रहा है, उसे शांत करने के बजाय राजनीतिक रंग देकर अपनी जिम्मेदारियों से ध्यान भटकाने का प्रयास किया जा रहा है। इससे तो यही जाहिर होता है कि सरकार वहां की जातीय हिंसा को रोकने को लेकर गंभीर नहीं है।
मणिपुर में हिंसक घटनाओं की शुरुआत हुई तो वहां के उच्च न्यायालय के एक अव्यावहारिक निर्देश की वजह से, मगर इसके मूल में सरकार का पक्षपातपूर्ण रवैया शुरू से ही देखा जा रहा था। कुकी और नगा जनजातियों के लिए आरक्षित पहाड़ी इलाकों से सरकार ने खुद तथाकथित बाहरियों को निकालने का अभियान शुरू किया था। उससे यही संदेश गया कि सरकार आरक्षित क्षेत्रों में मैतेई लोगों की घुसपैठ कराना चाहती है। फिर अदालत के मैतेई लोगों को जनजातियों की सूची में शामिल करने पर विचार संबंधी निर्देश ने आग में घी का काम किया।
ऐसे संवेदनशील मसले पर सरकार को भ्रम निवारण के व्यावहारिक उपाय करने चाहिए थे। केंद्र सरकार का भी रवैया इसे लेकर ढीलाढाला ही रहा है, वरना महज औपचारिकता के लिए न तो सर्वदलीय बैठक बुलाई जाती और न हाथ पर हाथ धरे हिंसक झड़पों के अपने आप शांत होने का इंतजार किया जाता। जब तक वहां हिंसा नहीं रुकेगी, तब तक र्इंधन और दूसरी जरूरी चीजों की आपूर्ति भी ठीक से बहाल नहीं हो सकेगी। हिंसा रोकने के लिए वहां के लोगों का भरोसा जीतना बहुत जरूरी है।