कश्मीर के माछिल में पांच साल पहले हुई फर्जी मुठभेड़ के मामले में पिछले साल नवंबर में सैन्य अदालत ने दो अधिकारियों सहित छह फौजियों को दोषी करार देते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। यह एक तरह से ऐसे आरोपों की पुष्टि थी कि जनता की सुरक्षा के लिए तैनात सेना के कुछ अधिकारी और जवान नागरिकों की हत्या करने से भी नहीं हिचकते।

अब सेना की उत्तरी कमान के कमांडर ने भी उस फैसले की पुष्टि कर दी है। यह घटना बताती है कि तमगे हासिल करने के लिए कुछ फौजी किस हद तक जा सकते हैं। गौरतलब है कि अप्रैल 2010 में सेना ने दावा किया था कि उसने नियंत्रण रेखा के पास माछिल सेक्टर में तीन घुसपैठियों को मार गिराया है। पर सेना के उस दावे पर सवाल उठने लगे थे। मृतकों के परिजनों का कहना था कि उन युवकों को नौकरी का लालच देकर फौजी नियंत्रण रेखा के पास ले गए और उन्हें मार डाला।

जम्मू-कश्मीर पुलिस ने भी अपनी जांच में साबित किया कि वे तीनों बेरोजगार युवक बारामूला जिले में नडिहाल के निवासी थे, उनके पाकिस्तानी आतंकवादी होने का सेना का दावा गलत है। पुलिस की इसी जांच के आधार पर मुकदमा पहले सामान्य अदालत और फिर सैन्य अदालत में चला। हालांकि शुरू में सेना ने आरोपियों को बचाने की कोशिश की। अब सजा की पुष्टि आखिर क्या बताती है? क्या फौजियों के हाथों मानवाधिकारों का हनन ज्यादा गंभीर सवाल नहीं है?

दरअसल, मामले के इस अंजाम तक पहुंचने की वजह यह भी थी कि जब यह घटना सामने आई तब लोगों के बीच आक्रोश फूट पड़ा और समूचे कश्मीर में सुरक्षा बलों से टकराव में करीब सवा सौ लोग मारे गए थे। पहले भी ऐसी रिपोर्टें आ चुकी हैं कि फर्जी मुठभेड़ के पीछे खुद को कानून से ऊपर समझने की मानसिकता के अलावा सैन्यकर्मियों के बीच इनाम और पदोन्नति का लालच भी रहता है। सवाल है कि क्या सिर्फ इतने स्वार्थ के लिए किसी पुलिस या सैन्यकर्मी को बेकसूरों की जान ले लेने की छूट मिल जाती है?

माछिल में हुई घटना फर्जी मुठभेड़ का कोई अकेला मामला नहीं थी। ऐसी घटनाएं देश के दूसरे इलाकों में भी अक्सर होती रही हैं। अगर सीमा और जनता की सुरक्षा के लिए तैनात लोग ही बेकसूर नागरिकों की जान के लिए खतरा बन जाएं तो यह सेना या पुलिस महकमे की साख का भी सवाल है।

इसलिए न केवल फर्जी मुठभेड़ जैसी घटनाओं पर पूरी तरह रोक लगाने की जरूरत है, बल्कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून जैसे नियम-कायदों को खत्म करने पर भी विचार किया जाना चाहिए, जो सुरक्षा बलों को सजा से मुक्त होने का आश्वासन और बेलगाम होने की छूट देते हैं। यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि अगर कुछ खास हालात में रिहाइशी इलाकों में सेना को तैनात करने की नौबत आती है, तो नागरिकों के प्रति ड्यूटी को लेकर न सिर्फ सैनिकों का उचित प्रशिक्षण हो, बल्कि उन पर निगरानी की भी व्यवस्था हो।