जनसत्ता 17 अक्तूबर, 2014: अलग-अलग राज्यों, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और भाषाओं के लोगों के मिलजुल कर साथ रहने को हमारे देश में ‘अनेकता में एकता’ के सिद्धांत के रूप में बड़े गर्व से पेश किया जाता है। लेकिन मंगलवार को बंगलुरु में तीन मणिपुरी युवकों के साथ कुछ स्थानीय लोगों ने जो किया, वह बताता है कि विभिन्न समुदायों के बीच आपसी सद्भाव और सौहार्द का नारा लगाने वाले हमारे समाज की हकीकत क्या है। उन तीनों मणिपुरी युवकों को वहां कुछ लोगों ने सिर्फ इसलिए बुरी तरह पीटा कि वे कन्नड़ भाषा बोलना नहीं जानते थे। एक रेस्तरां में जब इन युवकों ने किसी बात का जवाब अंगरेजी में दिया, तो उन्हें कहा गया कि तुम कर्नाटक का खाना खाते हो, यहीं रहते हो, तो तुम्हें कन्नड़ बोलना होगा या फिर तुम इस राज्य से भाग जाओ! क्या यह ऐसे भारत की तस्वीर है, जिसे हम विभिन्न संस्कृतियों और भाषाओं का देश कहते हैं?
सच यह है कि अलग-अलग संस्कृतियों के बीच मेलजोल की रट लगाते हुए हमारे समाज में अभी तक शायद विविधता का सम्मान एक संस्कार नहीं बन पाया है। खासतौर पर मणिपुर, नगालैंड या अरुणाचल प्रदेश जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों से पढ़ाई-लिखाई या रोजी-रोजगार के लिए महानगरों का रुख करने वाले युवाओं को किस तरह का व्यवहार झेलना पड़ता है, यह सब जानते हैं। इसी साल जनवरी के आखिर में दिल्ली के लाजपत नगर इलाके में अरुणाचल प्रदेश के एक युवक नीडो तानिया को जिस तरह लोगों ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया और बाद में उसकी मौत हो गई, उसे किसी सामान्य मारपीट या हिंसा की घटना या केवल कानून-व्यवस्था की विफलता के रूप में नहीं देखा जा सकता। मणिपुर या पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों के निवासियों के साथ जब ऐसी घटना होती है, तो उसके पीछे एक खास तरह के दुराव की भावना काम कर रही होती है। हो सकता है कि इन घटनाओं को नस्लीय हमले की तरह न देखा जाए, लेकिन यह सच है कि ऐसे व्यवहार के पीछे पीड़ित का भारत के सामान्य लोगों से अलग दिखना एक वजह है। लगभग एक पखवाड़े पहले दिल्ली के राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर तीन अफ्रीकी मूल के युवकों को जिस तरह मारा-पीटा गया, उसके पीछे भी मुख्य वजह उनकी अश्वेत पहचान, उनसे अलगाव की भावना और पूर्वग्रह थे।
अक्सर ऐसी खबरें आती रही हैं कि किसी राज्य में दूसरे राज्य के लोगों को प्रताड़ित करने के लिए उनकी अलग भाषा-संस्कृति को आधार बनाया गया। इस तरह के दुराग्रहों के निशाने पर सबसे ज्यादा पूर्वोत्तर के लोग रहे हैं। कुछ समय पहले एक सर्वेक्षण में तथ्य उजागर हुए कि दिल्ली में पूर्वोत्तर के लोगों के साथ भेदभाव होता है, उनके रहन-सहन या कुछ अलग तरह के पहनावे आदि को लेकर ताने कसे जाते हैं, मखौल उड़ाने वाली टिप्पणियां की जाती हैं। ऐसे व्यवहार पर वे आमतौर पर चुप ही रह जाते हैं, लेकिन अगर कभी आपत्ति जताते हैं तो उनके साथ मार-पीट की जाती है। यह सही है कि राज्य या कानून देश के किसी भी राज्य या भाषाभाषी लोगों को अपनी पसंद या जरूरत के इलाकों में जीवन-बसर करने का हक देता है। लेकिन जमीनी हकीकत क्या यही है? पूर्वोत्तर भारत का हिस्सा है, लेकिन उसके प्रति न हमारे समाज या राजनीति में अपनत्व और चिंता शामिल दिखती है, न पढ़ाई-लिखाई में। सवाल है कि उन इलाकों के लोगों के खिलाफ कई बार निर्ममता की हद तक जो पूर्वग्रह बाकी देश में दिखते हैं, उनसे कैसे निपटा जाएगा?
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