भोपाल गैस त्रासदी को हुए तीस साल गुजर गए, मगर अभी तक न तो पीड़ितों को उचित मुआवजा मिल पाया है, न उस हादसे के बाद पैदा हुए खतरों से पार पाने के उपाय किए जा सके हैं। अब भी भोपाल में यूनियन कारबाइड कारखाने का हजारों टन जहरीला मलबा उसके परिसर में दबा या खुला पड़ा हुआ है। सूरज की रोशनी में वाष्पित होकर इससे निकलने वाली गैसें और जमीन में दबे रासायनिक तत्त्व भूजल में घुल कर लोगों की सेहत पर दुष्प्रभाव डाल रहे हैं। अनेक अध्ययन बताते हैं कि यूनियन कारबाइड कारखाने वाले इलाके में रहने वाली महिलाओं में आकस्मिक गर्भपात की दर तीन गुना बढ़ गई है। पैदा होने वाले बच्चों में आंख, फेफड़े, त्वचा आदि से संबंधित परेशानियां लगातार बनी रहती हैं। उनका दिमागी विकास अपेक्षित गति से नहीं होता। कैंसर के रोगी बढ़े हैं।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस हादसे में तीन हजार सात सौ सत्तासी लोग मारे गए और साढ़े पांच लाख जख्मी हुए। मगर हकीकत में यह संख्या कहीं ज्यादा है, क्योंकि 1997 के बाद सरकार ने गैस पीड़ितों के बारे में पता लगाना बंद कर दिया। इसके अलावा, यूनियन कारबाइड परिसर में रासायनिक मलबा दबे होने की वजह से हर साल बढ़ते रोगियों का कोई आंकड़ा नहीं जुटाया जा रहा। इस मलबे में कीटनाशक रसायनों के अलावा पारा, सीसा, क्रोमियम जैसे भारी तत्त्व हैं, जो वाष्पित होकर हवा के जरिए और जमीन में घुल कर भूजल को जहरीला बना रहे हैं। इसके चलते उस इलाके की जमीन में प्रदूषण लगातार फैलता जा रहा है और दूसरे इलाके भी इसकी चपेट में आ रहे हैं।

कानूनी उलझनों के चलते इस कचरे का समय रहते समुचित निपटान नहीं किया जा सका। कायदे से इसकी सफाई की जिम्मेदारी यूनियन कारबाइड कारखाने के प्रबंधन की थी, मगर जब सरकार खुद उनके बचाव में खड़ी हो गई तो उससे वाजिब सख्ती की उम्मीद कहां तक की जा सकती थी! सरकार ने इस कंपनी के अमेरिकी प्रबंधन से अदालत के बाहर समझौता कर लिया था और रासायनिक मलबे को कारखाना परिसर में ही या तो जमीन के नीचे दबा दिया गया या फिर खुला छोड़ दिया गया। तब से उस कचरे से निजात दिलाने की कोई पहल नहीं की गई। पर्यावरण विज्ञानियों का कहना है कि तीन से छह महीने के भीतर इस कचरे का समुचित निपटान संभव है। इसके लिए ऐसी व्यवस्था करनी पड़ेगी कि मलबे पर न तो धूप पड़ने पाए न बारिश का पानी। मगर न तो राज्य सरकार को इसकी फिक्र है न केंद्र को। प्रधानमंत्री ने स्वच्छता अभियान शुरू किया।

अच्छी बात है, पर इसमें औद्योगिक कचरे और प्रदूषण से मुक्ति का पहलू क्यों शामिल नहीं किया गया है? भोपाल गैस कांड दुनिया का सबसे बड़ा औद्योगिक हादसा था। तब से मांग की जाती रही है कि औद्योगिक इकाइयों की जवाबदेही स्पष्ट की जाए। मगर अभी तक सरकारें इससे बचती रही हैं, लगता है उनमें इसकी इच्छाशक्ति नहीं है। इसी का नतीजा है कि भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ित परिवारों को आज तक मुआवजे को लेकर संघर्ष करना पड़ रहा है। जो लोग स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां झेल रहे हैं, उनकी तकलीफों की भी सुनवाई कहीं नहीं हो पा रही। औद्योगिक कचरे के निपटान में जब भोपाल गैस त्रासदी के मामले में अब तक ऐसी अक्षम्य लापरवाही बरती जा रही है, तो वैसे मामलों में सरकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है, जो चर्चा का विषय नहीं बन पाते।

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta