उन्हें संगीत और नृत्य घुट्टी में मिला था। पिता सुखदेव महाराज विख्यात कथक नर्तक थे। तमाम विरोधों के बावजूद उन्होंने अपनी बेटियों को भी कथक में दीक्षित किया। इसी का नतीजा था कि सितारा देवी ने बचपन में ही अपने कथक के हुनर से उस जमाने के नामचीन लोगों का मन मोह लिया। सोलह साल की होते-होते वे एक परिपक्व कथक नर्तकी बन चुकी थीं। उसी उम्र में रवींद्रनाथ ने उनका नृत्य देखा और उन्हें नृत्य सम्राज्ञी का खिताब दे दिया।

तब से उनके साथ यह उपाधि जीवन भर जुड़ी रही। सितारा देवी में चरित्रों को देखने, समझने और आत्मसात करने की अद्भुत प्रतिभा थी। वे अपने आसपास की दुनिया को बारीकी से देखतीं और वहां से भावों, नृत्य भंगिमाओं को आत्मसात कर लेतीं। फिर, पौराणिक चरित्रों को पेश करते हुए उसे एक नए अंदाज में पेश कर देतीं। उनमें गजब की ऊर्जा और गतिमयता थी।

जब वे भावाभिनय में तल्लीन होतीं तो कई बार उन्हें तबलावादक की भी परवाह नहीं रह जाती। कृष्ण कथा पर भावाभिनय करते हुए जैसे वे कृष्ण का रूप धर लेतीं तो काली का चरित्र पेश करते हुए मंच पर मानो साक्षात काली के रूप में उतर आतीं। वे कहती भी थीं कि कथक कथा पेश करने का नृत्य माध्यम है, इसलिए कथा उसमें अपने वास्तविक रूप में सामने न आए तो उसका प्रभाव खत्म हो जाता है। उनमें अद्भुत त्वरा थी और विषय को कब किस तरह गहराई देनी है, वे तत्क्षण अपनी सूझ से कुछ अलग अंदाज में पेश कर देतीं। कथक मुख्य रूप से राज दरबारों का नृत्य था, जो मुगल शासकों तक संरक्षित रहता आया था। मगर सितारा देवी ने अपने हुनर से इस विधा को अंतरराष्ट्रीय मंचों तक पहुंचाया। अपनी ऊर्जा, गतिमयता और भावाभिनय के जरिए उन्होंने कथक को एक नई पहचान दी।

चालीस के दशक में सितारा देवी ने हिंदी सिनेमा का रुख किया और रोटी, अलहलाल, नगीना, मदर इंडिया आदि फिल्मों में काम किया। फिल्मों में भी काम करने वाली वे शायद पहली कथक नृत्यांगना थीं। लेकिन कुछ समय बाद वे पूरी तरह कथक में लौट आर्इं और फिल्मों का रुख कभी नहीं किया। वे गाती भी बहुत अच्छा थीं। तबला वादक जाकिर हुसैन ने बताया है कि सितारा देवी अक्सर उनके पिता उस्ताद अल्ला रखा खां से तबला सिखाने की जिद करतीं। कम लोग जानते हैं कि नृत्य में भी वे केवल कथक तक खुद को सीमित नहीं रखना चाहती थीं। उन्होंने बैले, कैलिप्सो और सांबा नृत्य भी सीखा था और इन नृत्य माध्यमों को सधे अंदाज में पेश कर सकती थीं। इस तरह वे संपूर्ण कलाकार थीं। निजी जीवन में वे खासी विद्रोहिणी थीं।

स्त्रियों को लेकर समाज में प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध उनका विद्रोह कई बार सामने आया। खुले मिजाज की और स्वाभिमानी सितारा देवी को अगर कभी किसी की आलोचना करनी होती तो मंच पर चिल्ला कर देती थीं, मगर कभी किसी के प्रति मन में मैल नहीं रखती थीं। उनके स्वाभिमानी और विद्रोहिणी स्वभाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 2002 में जब उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित करने की घोषणा की गई तो उन्होंने यह कहते हुए उसे अस्वीकार कर दिया कि भारत रत्न से कम वे कोई सम्मान नहीं लेना चाहेंगी, इतनी लंबी साधना और संघर्ष के बावजूद उनका काम अगर इस लायक नहीं है तो वे कोई राजकीय सम्मान नहीं लेंगी। उनके जाने से नृत्य की नवोन्मेषी धारा क्षीण हुई है।

 

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