जनसत्ता 15 अक्तूबर, 2014: महानगरों में कामकाजी माता-पिता की बच्चों की देखभाल संबंधी मुश्किलों को आसान करने के मकसद से जहां तेजी से पालना-घर खुले, वहीं अच्छे माने जाने वाले स्कूलों में दाखिले की परेशानियों को आसान करने के दावे करते हुए प्ले स्कूलों का जाल फैलना शुरू हो गया। कई जगह पालना-घर और प्ले स्कूल मिले-जुले रूप में काम करते हैं। प्ले स्कूलों का कारोबार इस आधार पर फलता-फूलता है कि वे बच्चों को स्कूल जाने से पहले की तैयारी कराते, उन्हें बेहतर स्कूलों के अनुरूप ढालने का प्रयास करते हैं। उन्हें अच्छी अंगरेजी बोलने, उठने-बैठने, बातचीत करने का सलीका सिखाते हैं। चूंकि निजी स्कूलों में दाखिले के वक्त बच्चों के साक्षात्कार का नियम चल पड़ा है, इसलिए हर माता-पिता की यही चाहत होती है कि उनका बच्चा इसमें पिछड़ न जाए। इसलिए वे अपने बच्चों को प्ले स्कूलों की शरण में ले जाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। दिल्ली जैसे महानगर में प्ले स्कूल चलाना नियमित स्कूल की तरह का ही बड़ा कारोबार बन चला है। इसमें कई बड़ी देशी-विदेशी कंपनियां भी उतर आई हैं, जिनके प्ले स्कूलों की शाखाएं राजधानी के विभिन्न हिस्सों में खुली हुई हैं।
अनेक बड़े स्कूल अपने परिसर के भीतर प्ले स्कूल भी चलाते हैं। उनका तर्क होता है कि इस तरह वे बच्चे को नियमित कक्षा के अनुरूप तैयार करने में अभिभावकों की मदद करते हैं। इनके अलावा एक-दो कमरों वाले सामान्य रिहाइशी मकानों में भी ऐसे स्कूल खूब चल रहे हैं। मगर हैरानी की बात है कि इन स्कूलों पर नजर रखने वाला कोई तंत्र नहीं है। यही वजह है कि ये स्कूल फीस, वाहन शुल्क आदि के रूप में मनमाना पैसा उगाहते हैं। कई जगह बच्चों के खानपान, खेलकूद, वाहन सुविधा आदि पर समुचित ध्यान न दिए जाने और बेजा सख्ती बरतने की शिकायतें भी आ चुकी हैं, पर स्पष्ट नियम-कायदे न होने के कारण कोई कार्रवाई नहीं की जा सकी। इनकी इस मनमानी पर रोक लगाने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि प्ले स्कूलों को भी शिक्षा निदेशालय जैसे किसी महकमे के तहत जवाबदेह बनाया जाए या इनके लिए कोई नियामक तंत्र गठित किया जाए। बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने भी इन्हें नियंत्रित करने के उपाय करने की सिफारिश की थी। मगर अभी तक दिल्ली सरकार ने इस दिशा में कुछ नहीं किया है। इस पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने उचित ही सरकार को खरी-खोटी सुनाई है।
समझना मुश्किल है कि सरकार ने अभी तक प्ले स्कूलों को लेकर नियम-कायदे बनाने की जरूरत क्यों नहीं समझी, जबकि इन स्कूलों का जाल हर तरफ फैलता गया है। अनेक स्कूलों ने सरकार से काफी कम दर पर भूखंड हासिल किए हुए हैं। बहुत सारे स्कूल अपने परिसर के भीतर ही प्ले स्कूल शुरू कर नियमित कक्षाओं की तरह ही फीस वसूल रहे हैं। छोटे-छोटे कमरों में चलने वाले प्ले स्कूलों के पास न तो बच्चों के लिए ठीक से बैठने की जगह होती है न उनके खेलने-खाने, शौच-सफाई आदि का ध्यान रखने वाले प्रशिक्षित कर्मी होते हैं। छोटी-छोटी गाड़ियों में क्षमता से अधिक बच्चों को बिठा कर लाया-ले जाया जाता है। उनके वाहनों का न तो व्यावसायिक पंजीकरण होता है, न उनके चालकों की योग्यता आदि का ध्यान रखा जाता है। फिर इन स्कूलों में बच्चों के साथ दुर्व्यवहार की शिकायतों पर अमूमन कोई कार्रवाई नहीं हो पाती। इसलिए दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के पालन में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए।
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