नियंत्रक एवं महा लेखा परीक्षक शशिकांत शर्मा का यह सुझाव स्वागत-योग्य है कि सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं का सोशल ऑडिट अनिवार्य किया जाना चाहिए। दरअसल, इसकी जरूरत दो बुनियादी तकाजों से है। एक यह कि लोगों की आर्थिक-सामाजिक समस्याओं से सीधे ताल्लुक रखने वाली योजनाओं का सोशल ऑडिट विकास-कार्यों में स्थानीय लोगों की सहभागिता का रास्ता खोलता है।
इस अर्थ में यह कोई घटना नहीं, बल्कि प्रक्रिया है। दूसरे, योजनाओं के क्रियान्वयन की सामाजिक जांच हो, तो उससे भ्रष्टाचार पर काबू पाने में मदद मिलेगी। इस दिशा में हुए प्रयोगों से इसकी पुष्टि होती है। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना के सोशल ऑडिट के दो उदाहरण चर्चित रहे हैं।
एक राजस्थान के डूंगरपुर में, और दूसरा, आंध्र के अनंतपुर में। नरेगा पहले चरण में देश के दो सौ चुनिंदा जिलों में लागू हुई थी, जिनमें डूंगरपुर और अनंतपुर भी थे। डूंगरपुर में सोशल आॅडिट मजदूर किसान शक्ति संगठन और अनंतपुर में नेशनल फूड फॉर वर्क प्रोग्राम की पहल पर हुआ। दोनों जगह योजना के क्रियान्वयन संबंधी सरकारी दावे और स्थानीय लोगों के अनुभवों के बीच काफी अंतर पाया गया। यही नहीं, अनियमितताएं भी उजागर हुर्इं।
देश में सोशल ऑडिट के कुछ और भी प्रयोग हुए हैं। मगर वे स्वयंसेवी संगठनों के छिटपुट हस्तक्षेप की तरह रहे हैं। जबकि इन अनुभवों से लाभ उठाते हुए सोशल ऑडिट को व्यापक और अधिक कारगर शक्ल देने की जरूरत है। यों खुद कैग की तरफ से सरकारी योजनाओं की वित्तीय खामियां जब-तब सामने आती रहती हैं। मगर वह तस्वीर सरकारी खातों और कागजात की जांच पर आधारित होती है।
हिसाब-किताब और स्थानीय लोगों के अनुभव की खाई उससे सामने नहीं आ पाती। मोटे अनुमान के मुताबिक वर्ष 2013-14 में केंद्र और राज्यों की सामाजिक कल्याण योजनाओं पर कुल सत्रह लाख करोड़ रुपए खर्च हुए। जिलों के हिसाब से देखें तो यह राशि हर जिले के लिए औसतन 2, 656 करोड़ रुपए बैठती है। यह केवल एक साल का हिसाब है।
जबकि योजनाएं बरसों से और कुछ तो दशकों से चल रही हैं। इनका अपेक्षित परिणाम क्यों नहीं दिखता? योजनाओं की समीक्षा अमूमन केंद्र और राज्यों की राजधानियों में बैठे नौकरशाहों के स्तर पर होती है, जिन्हें जमीनी हकीकत पता नहीं होती। क्रियान्वयन की वास्तविक स्थिति जाननी हो, तो जमीनी आकलन करना होगा, जो कि सीधे लाभार्थियों से बातचीत किए बगैर नहीं हो सकता। सोशल आॅडिट न सिर्फ योजनाओं के अमल की जमीनी जांच का जरिया है बल्कि यह स्थानीय स्तर पर विकास-कार्यों में लोगों की सीधी भागीदारी भी सुनिश्चित करने का उपाय है।
इससे हमारा लोकतांत्रिक संवर्धन होगा और विकास की प्रक्रिया भी अधिक अर्थपूर्ण होगी। यों पंचायतों और नगर निकायों को कई जिम्मेदारियां दी गई हैं, इसके लिए उन्हें धन भी आबंटित होता है। पर उनकी जिम्मेदारियों को जवाबदेही और पारदर्शिता की कसौटी पर परखने की जरूरत है। इससे योजनाएं अधिक प्रभावी होंगी और उनमें जमीनी स्तर पर जरूरी बदलाव के सुझाव भी आएंगे।
हो सकता है कि तब प्राथमिकताओं को लेकर बेहतर समझ बने और उसके अनुरूप योजनाओं में फेरबदल का दबाव भी। मनरेगा के अलावा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, ग्रामीण विद्युतीकरण, सर्वशिक्षा अभियान, मिड-डे मील और समेकित बाल विकास कार्यक्रम जैसी योजनाएं भी सरकारी दावों और वास्तविक परिणाम की खाई के उदाहरण हैं। इस विसंगति को दूर करने में सोशल आॅडिट की अहम भूमिका हो सकती है। हमारी सरकारें इसके लिए क्यों नहीं तैयार होतीं? क्या इसलिए कि उनके दावों पर सवालिया निशान लग जाएंगे!
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