जनसत्ता 9 अक्तूबर, 2014: हालांकि भारत और पाकिस्तान की सीमा पर संघर्ष-विराम समझौते के उल्लंघन की घटनाएं पहले भी हुई हैं, पर इस वक्त जैसे हालात दिख रहे हैं उनमें इस समझौते के भविष्य पर सवालिया निशान लग गया है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। महज एक हफ्ते के भीतर पाकिस्तान की तरफ से सत्रह बार संघर्ष-विराम से उलट घटनाएं हुर्इं। सीमापार से हुई गोलाबारी में जम्मू के सीमावर्ती इलाके में छह व्यक्तियों की जान जा चुकी है। खौफ के मारे काफी तादाद में लोगों को अपने घरबार छोड़ कर सुरक्षित ठिकानों की तलाश में पलायन करना पड़ा है। भारत ने भी जवाबी कार्रवाई की है। पाकिस्तान का कहना है कि उसके पंद्रह नागरिक मारे गए हैं और इस तथ्य का हवाला देते हुए उसने भारत के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र से शिकायत भी की है। इन दुखद घटनाओं की कड़ी में एक चिंताजनक पहलू यह भी है कि संघर्ष-विराम समझौते के लिए जो व्यवस्था बनाई गई थी, वह नाकाम रही। दोनों तरफ के सैन्य अधिकारियों की फ्लैग मीटिंग और सैन्य अभियान निदेशकों की बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकल सका। ऐसी स्थिति संघर्ष-विराम समझौते का मखौल है। विडंबना यह है कि ऐसे संकट के समय भी देश के पास कोई पूर्णकालिक रक्षामंत्री नहीं है।
संघर्ष-विराम समझौते का आग्रह पहले पाकिस्तान की तरफ से ही आया था, जिसे भारत ने मान लिया और नवंबर 2003 में समझौते की औपचारिक घोषणा की गई। जब-तब हुई झड़पों के बावजूद इस समझौते की उपलब्धियों को खारिज नहीं किया जा सकता। अस्सी के दशक से समझौते के पहले तक नियंत्रण रेखा पर टकराव की घटनाएं आए दिन होती रहती थीं। समझौते के बाद वह सिलसिला थम गया। हर साल दोनों तरफ के रक्षा सचिवों की बैठक होती रही, जिनमें सीमा पर शांति बनाए रखने के तकाजे के साथ-साथ और भी विचारणीय मुद््दे होते थे। समझौते से पहले के दशक और बाद के दशक की तुलना करें तो सरहद पर हिंसा में आई कमी साफ नजर आती है। पर पिछले साल की कुछ घटनाओं और ताजा वाकयों ने इस समझौते को लेकर पाकिस्तान के रवैए पर सवाल उठाए हैं। पाकिस्तान की तरफ से जब भी गोलाबारी होती है, कहा जाता है कि इसके पीछे उसका इरादा आतंकवादियों की घुसपैठ कराना रहा होगा। कश्मीर को विश्व-पटल पर चर्चा का विषय बनाने में नाकामी से उपजी उसकी निराशा भी एक बड़ी वजह हो सकती है। पर यह बार-बार साबित हुआ है कि ऐसी रणनीति से उसे कुछ हासिल नहीं होगा। पाकिस्तानी सेना की तरफ से उकसावे की कार्रवाई ऐसे समय हुई, जब कुछ दिन पहले भारत यह संकेत दे चुका था कि वह कश्मीर समेत सभी द्विपक्षीय मसलों पर बातचीत के लिए तैयार है। पाकिस्तान के राज्यतंत्र और वहां के मीडिया में भी इस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई थी। पाकिस्तान के विदेश मामलों के सलाहकार ने तब यह तक कहा कि दोनों तरफ के विदेश सचिवों की बैठक से पहले उनके उच्चायुक्त का हुर्रियत नेताओं से मुलाकात करना अनावश्यक था।
पर समस्या यह है कि पाकिस्तानी फौज कई बार वहां की सरकार की परवाह नहीं करती, नवाज शरीफ से उसकी अनबन की खबरें भी आती रही हैं। तो पाकिस्तानी सेना ने बातचीत की संभावना को पलीता लगाने के मकसद से उकसाने की कार्रवाई की? नवाज शरीफ शुरू से भारत से बातचीत की वकालत करते रहे हैं। पर कुछ समय से वे राजनीतिक मुश्किलों से घिरे हुए हैं। क्या पाकिस्तानी फौज के कट्टरपंथी तत्त्व उनकी इस स्थिति का बेजा लाभ उठाना चाहते हैं? जो हो, स्थगित वार्ता प्रक्रिया की बहाली का तरीका हिंसा के साए में नहीं निकाला जा सकता। यह तभी संभव है जब संघर्ष-विराम समझौते का पालन किया जाए।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta

