जनसत्ता 7 अक्तूबर, 2014: निर्वाचन आयोग काफी पहले से इस बात की वकालत करता आ रहा है कि पेड न्यूज यानी उम्मीदवारों से पैसा लेकर खबर या विश्लेषण छापने और दिखाने को चुनावी अपराध की श्रेणी में रखा जाए। अच्छी बात है कि विधि आयोग के एक परामर्श-पत्र से इस सुझाव को बल मिला है। अधिकतर लोगों ने निर्वाचन आयोग के आग्रह से सहमति जताई है। यों चुनाव के दौरान धन के अवैध इस्तेमाल के तमाम तरीके काफी समय से आजमाए जाते रहे हैं, पर पैसे के बल पर मनचाही खबरों की बीमारी इधर के ही कुछ वर्षों में पनपी है। राजनीति में धनबल और भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति बढ़ते जाने से लेकर पत्रकारीय मूल्यों में गिरावट तक इसकी अनेक वजहें हैं। पर कुछ ढांचागत कारण भी हैं। मसलन, मीडिया में बाजारीकरण का हावी होना और संपादकीय स्वायत्तता का क्षरण। ऐसे में उन लोगों की बन आती है, जो चुनाव के दौरान अपने और अपने प्रतिद्वंद्वियों के बारे में खबरें या विश्लेषण चाहते हैं। पेड न्यूज से एक तरफ यह पत्रकारिता की साख को चोट पहुंचती है और दूसरी तरफ चुनावी प्रक्रिया भी दूषित होती है। ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं जब किसी उम्मीदवार के बारे में इस तरह से खबरें दी गर्इं जैसे उसे जिताने की कोशिश की जा रही हो। उसके प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार के बारे में या तो लगातार नकारात्मक खबरें दी गर्इं या कुछ भी छापा या दिखाया नहीं गया। कई बार समाचार के बजाय यह विश्लेषण की शक्ल में होता है। और भी बुरी बात यह है कि कई बार चुनावी विज्ञापन को खबर के रूप में परोसा जाता है।
ऐसी शिकायतों के मद्देनजर प्रेस परिषद भी चिंतित रहा है और निर्वाचन आयोग भी। पर समस्या यह है कि पेड न्यूज को साफ परिभाषित करना मुश्किल रहा है, और दूसरे, अगर शिकायत में दम नजर आए तब भी आयोग महसूस करता है कि उसके हाथ बंधे हुए हैं। दरअसल, आयोग चुनावी भ्रष्टाचार की बाबत जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत कार्रवाई करता है। अगर किसी उम्मीदवार ने निर्धारित सीमा से अधिक खर्च किया हो या उसकी तरफ से पेश किए गए खर्च के ब्योरे गलत पाए जाएं, तो आयोग संबंधित कानून के तहत कार्रवाई कर सकता है। अलबत्ता ऐसी कार्रवाई के उदाहरण बहुत कम हैं। पेड न्यूज का मामला हो, तो आयोग को प्रेस परिषद से कदम उठाने के लिए कहना पड़ता है। परिषद के दायरे में एक तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं आता। दूसरे, उसके सदस्यों में कई मीडिया-मालिक भी होते हैं, जो दंडात्मक कार्रवाई के आड़े आते हैं। लिहाजा, पेड न्यूज के मसले पर बनी संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में मीडिया-मालिकों को परिषद के सदस्य न बनाने का सुझाव दिया था। समिति ने यह भी कहा था कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक, दोनों के लिए एक ही नियामक संस्था हो, या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए भी प्रेस परिषद जैसी संस्था बने। पेड न्यूज के मामले में परिस्थितिजन्य साक्ष्य को भी माना जाए। मीडिया घरानों के हिसाब-किताब सार्वजनिक जानकारी के दायरे में हों।
इन सुझावों के साथ ही संसदीय समिति ने पेड न्यूज को चुनावी अपराध की श्रेणी में रखने और संबंधित कानून में संशोधन की निर्वाचन आयोग की मांग से सहमति जताई। सवाल है कि इस दिशा में पहल कब होगी? पेड न्यूज जैसा ही मामला कई बार चुनावी सर्वेक्षण में भी दिखता है। इसी साल फरवरी में एक स्टिंग आॅपरेशन से जाहिर हुआ था कि एक सर्वे एजेंसी ने किस तरह पैसे लेकर हार-जीत के मनचाहे आंकड़े देने की बात कबूली। उससे तीन महीने पहले ‘कोबरापोस्ट’ ने अपने स्टिंग के जरिए खुलासा किया था कि सोशल मीडिया में भी पैसे लेकर लोकप्रियता बढ़ाने-गिराने का खेल चलता है। इस पर भी लगाम लगाने के उपाय सोचने होंगे।
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