जनसत्ता 17 अक्तूबर, 2014: थोक मूल्य सूचकांक के पैमाने पर महंगाई के पिछले पांच सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच जाने के आंकड़ों पर स्वाभाविक ही सुगबुगाहट शुरू हो गई है। एक तरफ जहां राजग सरकार ने इसे अपनी उपलब्धियों में शुमार कर लिया है और उद्योग जगत इसे बेहतरी के संकेत के रूप में देख रहा है वहीं कुछ लोग इसे यूपीए की नीतियों का प्रतिफल मान रहे हैं। पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने पूछा है कि राजग ने महंगाई को लेकर कौन से उपाय किए, जिनसे इसका स्तर नीचे आ गया। सवाल यह भी है कि ये आंकड़े ऐन उसी दिन क्यों प्रकाशित हुए जिस दिन हरियाणा और महाराष्ट्र में मतदान होना था। उसी दिन पेट्रोल की कीमतों में एक रुपया प्रति लीटर की कमी का एलान भी किया गया। फिर महंगाई घटने को लेकर जैसा खुशी का माहौल बनाया जा रहा है, वास्तव में स्थिति वैसी नहीं है। खुदरा बाजार में खाने-पीने की चीजों की कीमतें कहीं से कम नजर नहीं आ रहीं। आलू जैसी रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली और सामान्य लोगों के आहार का मुख्य हिस्सा मानी जाने वाली सब्जियों की कीमतें भी नीचे उतरने का नाम नहीं ले रहीं। फलों, खाद्य तेलों, चीनी, आदि की कीमतें भी खुदरा बाजार में कम होती नजर नहीं आतीं। दरअसल, थोक और खुदरा कीमतों को मापने का पैमाना शुरू से सवालों के घेरे में रहा है। किसान या उत्पादक से चल कर उपभोक्ता तक पहुंचने में वस्तुओं की कीमतों में क्यों इतना अंतर आ जाता है, न तो इस पर ठीक से ध्यान देने की जरूरत समझी जाती और न इसे संतुलित करने का कोई व्यावहारिक उपाय किया गया है।
बहरहाल, महंगाई की दर कम होने के पीछे कुछ वाजिब वजहें मानी जा सकती हैं। एक तो यह कि पिछले करीब दस महीने से रिजर्व बैंक ने अपनी दरें स्थिर रखी हैं। दूसरे, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें कम हुई हैं। फिर यूपीए सरकार के समय में राजकोषीय घाटे को कम करने के मामले में दृढ़ता दिखाई गई। राजग सरकार के समय महंगाई पर काबू पाने के मकसद से कोई कड़ा कदम नहीं उठाया गया। बल्कि उद्योग जगत को प्रोत्साहित करने पर ज्यादा जोर है। इस तरह यह कयास भी गलत नहीं कहा जा सकता कि महंगाई की दर कम होने से उद्योग जगत की लंबे समय से चली आ रही इस मांग को पूरा करने का तर्क मिल गया है कि रिजर्व बैंक अपनी दरों में कटौती करे। दिसंबर में मौद्रिक नीति जारी होनी है और अभी से ब्याज दरों में कटौती की मांग जोर पकड़ने लगी है। मगर रिजर्व बैंक के लिए यह आसान नहीं कहा जा सकता कि थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर वह ब्याज दरें घटाने का फैसला करे। बाजार में मुद्रा का प्रवाह बढ़ने से महंगाई भी अपने पांव पसारती है। फिर महंगाई की वजहें छिपी नहीं हैं। इस पर काबू पाने के लिए सरकार के सामने भंडारण और विपणन संबंधी कमजोरियों को दूर करना, बिचौलियों और कालाबाजारी करने वालों पर नजर रखना बड़ी चुनौती है। ब्याज दरों में कटौती से विनिर्माण जैसे क्षेत्रों की रुकी हुई गति तो वापस लौट सकती है, मगर सामान्य उपभोक्ता की क्रयशक्ति बढ़ाने का दावा नहीं किया जा सकता। थोक मूल्य सूचकांक से सामान्य उपभोक्ता पर महंगाई की पड़ने वाली वास्तविक मार का सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। सरकार को इस दिशा में पारदर्शी और व्यावहारिक नीतियां बनाने के बारे में सोचना होगा।
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