जनसत्ता 15 नवंबर, 2014: आखिरकार अमेरिका और भारत ने विश्व व्यापार संगठन के प्रस्तावित टीएफए यानी व्यापार सुगमता समझौते को लेकर अपने मतभेद सुलझा लिए हैं। अमेरिका ने कृषि सबसिडी से संबंधित भारत के रुख को मान लिया है। यह जहां भारत की एक बड़ी कूटनीतिक कामयाबी है वहीं इससे डब्ल्यूटीओ में टीएफए को लेकर चला आ रहा गतिरोध दूर होने का रास्ता साफ हुआ है। गौरतलब है कि जुलाई में हुई डब्ल्यूटीओ की महा परिषद की बैठक में भारत ने टीएफए को मानने से मना कर दिया था, यह कहते हुए कि वह सैद्धांतिक तौर पर इस समझौते के खिलाफ नहीं है, पर इसे तभी मंजूर कर सकता है जब खाद्य सुरक्षा पर उसके रुख को भी माना जाए। डब्ल्यूटीओ के मंच पर खाद्य सुरक्षा का व्यावहारिक मतलब कृषि सबसिडी से रहा है। पिछले साल दिसंबर में इंडोनेशिया के बाली में हुए डब्ल्यूटीओ के नौवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में भी टीएफए बनाम कृषि सबसिडी का मुद््दा छाया रहा था और एक समय ऐसा लग रहा था कि सम्मेलन नाकाम हो जाएगा और दोहा दौर के एजेंडे को पटरी पर लाने की कोशिशें धूल में मिल जाएंगी। तब भी कृषि सबसिडी जारी रखने के पक्ष में सबसे जोर-शोर से भारत ने ही आवाज उठाई थी।

इस द्वंद्व को सुलझाने के लिए एक बीच का रास्ता निकाला गया। यह प्रावधान किया गया कि ग्यारहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन यानी 2017 तक विभिन्न देश कृषि सबसिडी जारी रख सकते हैं, यानी उसके खिलाफ डब्ल्यूटीओ के विवाद निपटारा प्राधिकरण में अपील नहीं की जा सकेगी। इस प्रावधान को पीस क्लाज यानी शांति अनुच्छेद का नाम दिया गया। लेकिन चार साल की मोहलत के बाद क्या होगा, यह सवाल भारत को चिंतित करता रहा। भारत के रुख से सबसे ज्यादा नाराज अमेरिका था, क्योंकि कृषि उत्पादों के निर्यात की बंदिशें हटवाने में सबसे अधिक उसी की दिलचस्पी रही है। अब अमेरिका ने मान लिया है कि शांति अनुच्छेद चार साल बाद भी बना रह सकता है, जब तक इस बारे में कोई दूसरा स्थायी करार नहीं हो जाता। क्या उन अन्य देशों को भी यह मंजूर होगा, जो इस अनुच्छेद को चार वर्ष बाद भी जारी रखने के भारत के आग्रह का विरोध करते आ रहे थे? अगर वे भी तैयार हो जाते हैं, जिसकी अधिक संभावना है, तब भी डब्ल्यूटीओ की महा परिषद की अगली बैठक में टीएफए के औपचारिक रूप लेने की उम्मीद कम है, क्योंकि बदली हुई स्थितियों में पहले उसके नियमों में संशोधन करना होगा। अगले महीने जेनेवा में जुटने वाले डब्ल्यूटीओ के सदस्य-देश शायद औपचारिक करार के बजाय टीएफए को लागू करने के इरादे का एलान करें और उसे मूर्त रूप देने की कोई समय-सीमा तय हो।

बहरहाल, डब्ल्यूटीओ में चल रहे विवाद के मद््देनजर भारत की जीत जरूर दिखाई देती है, पर इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि किसानों की हालत में कोई बदलाव आएगा। हुआ बस यही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य को विश्व व्यापार संगठन की इच्छा के मुताबिक समाप्त या सीमित करने का दबाव नहीं रहेगा। लेकिन बस यथास्थिति बने रहना क्या किसानों के लिए कोई बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है! न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रावधान या परिपाटी के बावजूद काफी हद तक खेती घाटे का धंधा बनी हुई है। कई बार किसानों को अपना बकाया पाने के लिए आंदोलन करना पड़ता है। जब फसल किसी वजह से बर्बाद होती है तब तो किसान मुसीबत में होते ही हैं, उपज अच्छी होती है तब भी वाजिब कीमत न मिलने से वे खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। पिछले दो दशक में दो लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की है। इसके लिए डब्ल्यूटीओ जिम्मेवार था, या अपनी ही सरकारों की संवेदनहीनता जिम्मेवार रही है?

 

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