जनसत्ता 9 अक्तूबर, 2014: देश में ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण के लिए एक सरकारी तंत्र होने के बावजूद हालत यह है कि कई बार इस मसले पर अदालतों को दखल देना पड़ता है। फिर भी संबंधित महकमों की कार्यशैली में कोई खास फर्क नहीं आ पाया है। आगरा से तकरीबन छब्बीस मील दूर फतेहपुर सीकरी का निर्माण सोलहवीं सदी में बादशाह अकबर ने कराया था। झील के किनारे निर्मित यह पहला नियोजित शहर था, जो आज भी अपने ऐतिहासिक महत्त्व के लिए जाना जाता है। लेकिन हालत यह है कि फतेहपुर सीकरी की जीवनरेखा कही जाने वाली वह झील पूरी तरह सूख गई है, जिसके किनारे इसका निर्माण कराया गया था। इमारत की हालत बहुत खराब हो चुकी है और चारों ओर से अतिक्रमण के चलते इसकी खूबसूरती नष्ट हो रही है। जाहिर है, यह लोगों की गैरजिम्मेदारी और ऐतिहासिक इमारतों की देखरेख का दायित्व ओढ़े महकमों की लापरवाही का नतीजा है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही इसका संज्ञान लेते हुए उत्तर प्रदेश सरकार और भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग को दिशा-निर्देश जारी किए हैं कि वे फतेहपुर सीकरी के ऐतिहासिक महत्त्व को बरकरार रखने के लिए तुरंत पहलकदमी करें।
एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान अदालत ने फतेहपुर सीकरी की इमारत के आसपास का अतिक्रमण हटाने, सड़क को चौड़ा करने और सीसीटीवी कैमरे लगाने के अलावा वहां की यातायात-व्यवस्था को सुधारने के मकसद से चारदिवारी के निर्माण के आदेश दिए हैं। गौरतलब है कि फतेहपुर सीकरी में लाल पत्थरों से बनी इमारत को धर्मनिरपेक्षता और विभिन्न धर्मों के बीच मेलजोल के बेजोड़ प्रतीक के तौर पर देखा जाता रहा है।
इसके चारों ओर नौ किलोमीटर की चारदिवारी में नौ दरवाजे हैं। फतेहपुर सीकरी के बुलंद दरवाजा को एशिया का सबसे ऊंचा गेटवे कहा जाता है। अपने वास्तु, शिल्प और ऐतिहासिक महत्त्व के चलते ही इसे विश्व धरोहरों की सूची में भी जगह मिली है। लेकिन रखरखाव में की जाती रही कोताही औरअतिक्रमण के चलते यह इमारत जीर्ण-शीर्ण हालत में पहुंच चुकी है। आसपास बने व्यावसायिक परिसरों और मकानों में आने-जाने वाले लोगों ने चारदिवारी में अवैध रूप से रास्ते बना लिए हैं। आज भी वहां सड़क की चौड़ाई महज साढ़े पांच मीटर है, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इसे बढ़ा कर साढ़े दस मीटर करने के लिए जमीन अधिग्रहण करने का आदेश पहले ही पारित किया हुआ है। लेकिन उस पर अमल करना सरकार को जरूरी नहीं लगा।
दरअसल, संस्कृतिविदों की गुहार और समय-समय पर अदालती फटकार के बावजूद ऐतिहासिक विरासतों का संरक्षण सरकारों की चिंता में अब तक शामिल नहीं हो सका है। उलटे विकास की दलील देकर सरकारें वहां भी निर्माण की इजाजत और नियमों में ढील देती रही हैं, जहां ऐतिहासिक महत्त्व के स्थलों का अस्तित्व खतरे में है। नियमों के मुताबिक स्मारकों के सौ मीटर के दायरे में किसी भी तरह के निर्माण-कार्य पर पाबंदी है। लेकिन बहुत सारी धरोहरों के आसपास या उनसे बिल्कुल सटे गैरकानूनी निर्माण करा लिए गए या व्यावसायिक गतिविधियां शुरू कर दी गर्इं। लगभग छह साल पहले भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग ने देश भर में ढाई सौ से ज्यादा ऐतिहासिक स्थलों के अतिक्रमण का शिकार होने की बात कही थी। ऐतिहासिक महत्त्व की कई इमारतें आज या तो अतिक्रमण से प्रभावित हैं या जर्जर होती जा रही हैं। जब देश का ऐसा कोई स्थान विश्व धरोहर की श्रेणी में शामिल किया जाता है, तो यह हमारे लिए गौरव का विषय होता है। पर ऐसे स्थलों की दुर्दशा हमें विचलित क्यों नहीं करती!
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