जनसत्ता 13 नवंबर, 2014: तमिलनाडु के जिन पांच मछुआरों को श्रीलंका की एक अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी उनके लिए इससे ज्यादा खुशी की बात नहीं हो सकती कि श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने उन्हें क्षमादान देने का फैसला किया है। इससे भारत सरकार ने भी राहत की सांस ली होगी, क्योंकि यह मामला तमिलनाडु में जन-आक्रोश का सबब बन गया था। तमिलनाडु में यह आम धारणा रही है कि श्रीलंका सरकार तमिलों के साथ न्यायसंगत व्यवहार नहीं करती। चाहे श्रीलंकाई तमिलों के हितों का मसला हो या तमिलनाडु के मछुआरों के प्रति श्रीलंका की नौसेना के सलूक का, नाराजगी जब-तब फूट पड़ती है। तमिलनाडु के राजनीतिक दल इस भावना को और तीव्र करने और उसे भुनाने में कभी पीछे नहीं रहते, बल्कि उनमें इसकी होड़ रहती है। तमिलनाडु की जो पार्टियां लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ थीं, वे भी पिछले दिनों आए रोज मोदी सरकार पर तमिलों के हितों की परवाह न करने का आरोप लगाती रहीं। लेकिन ताजा खबर ने उनके इस आरोप की हवा निकाल दी है।

भारतीय विदेश मंत्रालय शुरू से कह रहा था कि ये मछुआरे निर्दोष हैं और सजा के खिलाफ अपील की जाएगी। श्रीलंका सरकार भी यही कह रही थी कि भारत के लिए अपील करना ही सबसे अच्छा विकल्प है। फिर क्या हुआ कि अचानक राजपक्षे क्षमादान के नतीजे पर पहुंच गए। अनुमान है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी टेलीफोन पर हुई बातचीत के बाद यह संभव हुआ। अलबत्ता विदेश मंत्रालय ने इस अनुमान की न तो पुष्टि की है न खंडन किया है। जो हो, कूटनीतिक प्रयासों के बगैर इन मछुआरों को माफी नहीं मिल सकती थी। यह बात इसलिए भी कही जा सकती है कि जनवरी के शुरू में श्रीलंका में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होना है। सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल जातिका हेला उरुमाया पार्टी ने मादक पदार्थों की तस्करी और उसे रोकने में सरकार की नाकामी को अपना सबसे अहम मुद्दा बनाया है। गौरतलब है कि जिन मछुआरों को फांसी की सजा सुनाई गई थी उन्हें हेरोइन की तस्करी के आरोप में तीन साल पहले श्रीलंका की नौसेना ने पकड़ा था। मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में राजपक्षे आए, तो उनसे मछुआरों से जुड़े मुद््दे पर भी बात हुई थी। इसके कुछ समय बाद श्रीलंका ने उन भारतीय मछुआरों को रिहा कर दिया, जो समुद्री सीमा के अतिक्रमण के आरोप में वहां बंद थे। उनमें ये पांच मछुआरे शामिल नहीं थे, क्योंकि इन पर मादक पदार्थों की तस्करी का आरोप था। हालांकि पहले ऐसे कृत्य में उनके शामिल होने की कोई घटना सामने नहीं आई थी।

ऐसे कई और मामलों में भी श्रीलंका की अदालतें फांसी सजा सुना चुकी हैं, पर 1976 के बाद से वहां कोई मृत्युदंड क्रियान्वित नहीं किया गया। इसलिए यह माना जा रहा था कि वहां की सर्वोच्च अदालत ताजा मामले में भी मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदल सकती है। पर श्रीलंका और भारत को मृत्युदंड के प्रावधान पर ही पुनर्विचार करना चाहिए। बहरहाल, राजपक्षे का फैसला निश्चय ही मोदी सरकार की एक कूटनीतिक उपलब्धि है। मगर मछुआरों से जुड़े जब-तब उठने वाले विवाद के स्थायी समाधान की भी पहल होनी चाहिए। यह सही है कि कोई देश अपनी सुरक्षा के तकाजे की अनदेखी नहीं कर सकता। पर अपनी आजीविका के क्रम में समुद्री सीमा का अतिक्रमण ऐसा अपराध नहीं माना जाना चाहिए जिसके लिए किसी को बरसों जेल में सड़ना पड़े। यही बात भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में भी कही जा सकती है। जाने-अनजाने समुद्री सीमा लांघ जाने वाले मछुआरों को रिहा कर दिया जाता है जब सौहार्द का संदेश देने जरूरत महसूस होती है। पर इस मसले को कूटनीतिक गरज के हिसाब से नहीं, मानवाधिकारों के नजरिए से देखा जाना चाहिए।

 

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