जनसत्ता 10 नवंबर, 2014: भारतीय जनता पार्टी सुशासन के वादे पर सत्ता में आई है। क्या झूठी घोषणा करना भी सुशासन में आता है? गृह मंत्रालय ने एलान किया था कि उन्नीस सौ चौरासी के सिख-विरोधी दंगों के हर पीड़ित परिवार को पांच लाख रुपए मुआवजा दिया जाएगा। यह राशि पहले मिले मुआवजे से अलग होगी। यह एलान ऐसे समय किया गया जब दिल्ली में तीन विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के मद््देनजर चुनावी आचार संहिता लागू थी। इसलिए उचित ही निर्वाचन आयोग ने गृह मंत्रालय को नोटिस जारी किया। लेकिन मंत्रालय अब अपनी उस घोषणा से पूरी तरह पलट गया है। नोटिस के जवाब में उसने कहा है कि मुआवजे का कोई फैसला नहीं किया गया था। मगर तबइस बारे में मीडिया में खबरें कैसे आ गर्इं? उन खबरों का मंत्रालय की ओर से खंडन क्यों नहीं किया गया? न सिर्फ नए मुआवजे को लेकर प्रमुखता से खबरें आर्इं बल्कि कई टीवी चैनलों पर परिचर्चाएं भी हुर्इं।

पंजाब के मुख्यमंत्री समेत कई सिख संगठनों ने सरकार के फैसले का स्वागत करते हुए बयान दिए। गृह मंत्रालय की तरफ से तभी स्पष्टीकरण आ जाना चाहिए था कि ऐसा कोई निर्णय नहीं किया गया है। उसके इनकार न करने से स्वाभाविक ही यही समझा गया कि मुआवजे की घोषणा वास्तविक है। यह धारणा इसीलिए बनने दी गई, क्योंकि दिल्ली में तीन सीटों पर उपचुनाव होने थे। उन्नीस सौ चौरासी के दंगों में सबसे ज्यादा लोग दिल्ली में ही मारे गए थे। इसलिए मुआवजे की खबर दिल्ली के लिए ज्यादा मायने रखती थी।

अगर आयोग ने जवाब तलब न किया होता, तो क्या पता सरकार भ्रम बनाए रखती, क्योंकि अब उपचुनाव नहीं, दिल्ली की सभी विधानसभा सीटों पर चुनाव होने हैं। यह पीड़ितों के आंसू पोंछना है या उनमें झूठी आशाएं जगा कर उनके जख्मों से खिलवाड़ करना? अगर मान लें कि सरकार ने मुआवजे का फैसला सचमुच किया था, पर आयोग के नोटिस के चलते वह उस फैसले से पलट गई, तो संवैधानिक संस्थाओं के प्रति उसके रवैए पर सवाल उठते हैं। उसने आचार संहिता का खयाल क्यों नहीं किया? उपचुनाव की घोषणा से पहले भी वह मुआवजे का एलान कर सकती थी। पर तब उसे यह नहीं सूझा। और अब गृह मंत्रालय अपनी उस घोषणा से ही मुकर गया है। उसने जो किया वह आचार संहिता का उल्लंघन तो था ही, पीड़ित परिवारों के साथ क्रूर मजाक भी है। इसके लिए कौन जिम्मेवार है? गृह मंत्रालय इस पर क्यों चुप्पी साधे हुए है? क्या उसे पीड़ित परिवारों से माफी नहीं मांगनी चाहिए? क्या प्रधानमंत्री इस किरकिरी की तह में जाएंगे? प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के जरिए यह भरोसा दिलाया था कि उनकी सरकार संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा का खयाल रखेगी। आचार संहिता का उल्लंघन क्या चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था का मान रखना है?

 

आयोग ने गृह मंत्रालय के रवैए पर उसे कड़ी फटकार लगाई है और कहा है कि भविष्य में ऐसा न हो। पर क्या यह काफी है? क्या इतने गंभीर मामले में आयोग को खिंचाई करने और नसीहत देने तक सीमित रहना चाहिए? आचार संहिता लागू करने और उसका पालन न होने पर आयोग को कार्रवाई के पर्याप्त अधिकार हासिल हैं। इनका प्रभावी इस्तेमाल कैसे हो सकता है इसकी मिसाल सबसे पहले टीएन शेषन ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहते पेश की थी। राजनीतिकों को आयोग की संवैधानिक सत्ता का अहसास सही मायने में तभी हुआ था। यों आयोग की निष्पक्षता और कुशलता की साख हमेशा बनी रही है। लेकिन आचार संहिता की अनदेखी के बेहद गंभीर मामले में भी अगर वह नोटिस जारी करने और उपदेश देने को अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ले, तो उसके निर्देशों की परवाह न करने की प्रवृत्ति पर लगाम कैसे लगेगी?

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta