जनसत्ता 15 नवंबर, 2014: मछिल फर्जी मुठभेड़ कांड के मामले में सैन्य अदालत का फैसला स्वागत-योग्य है। अदालत ने दो अधिकारियों सहित सात फौजियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। यह फैसला सेना के रुख में आए बदलाव की ओर इशारा करता है। सेना पिछले दिनों श्रीनगर में एक कार में सवार पांच युवकों पर गोली चलाने को भी अपनी गलती मान चुकी है। इस घटना में दो युवकों की मौत हो गई थी। जिस घटना की बाबत सैन्य अदालत का फैसला आया है वह अप्रैल 2010 में घटी थी। सेना ने तब दावा किया था कि उसने नियंत्रण रेखा के पास मछिल सेक्टर में तीन घुसपैठियों को मार गिराया, जो पाकिस्तानी आतंकवादी थे। इस दावे पर फौरन सवाल उठने लगे। मारे गए लोगों के परिजनों का कहना था कि इन युवकों को धन और नौकरी का लालच देकर फौजी नियंत्रण रेखा के पास ले गए और मार डाला। फिर पुलिस की जांच से भी यही बात सामने आई कि मारे गए युवक राज्य के निवासी थे, न कि घुसपैठिए, जैसा कि सेना बता रही थी। पुलिस की जांच के आधार पर सामान्य अदालत में मुकदमा शुरू हुआ। फिर बाद में मामला सैन्य अदालत में चला गया।

चौदह साल पहले के पथरीबल कांड को लेकर सेना के रवैए को देखते यह आशंका जताई जा रही थी कि मछिल मामले में भी शायद आरोपी बच निकलेंगे। इस अंदेशे को तब और बल मिला था जब पुलिस की जांच में सामने आए तथ्यों और सामान्य अदालत में दायर आरोपपत्र को नजरअंदाज करते हुए सेना ने कहा कि आरोपियों के खिलाफ कोई प्रथम दृष्टया साक्ष्य नहीं हैं। अगर सेना तब जो कह रही थी वह सही था, तो सैन्य अदालत ने आरोपियों को दोषी कैसे ठहराया? साफ है कि देर से ही सही, सेना को अपनी गलती का अहसास हुआ। पर यह बेहद दुखद है कि सेना को कोर्ट मार्शल और मामले को तर्कसंगत परिणति तक ले जाने की जरूरत महीनों घाटी में चले विरोध-प्रदर्शनों के बाद महसूस हुई। इन प्रदर्शनों के दौरान पांच महीनों के भीतर सीआरपीएफ की फायरिंग में एक सौ बीस लोग मारे गए। बहरहाल, सैन्य अदालत का फैसला उन फौजियों के लिए कड़ा संदेश है जो सोचते हैं कि वे कानून से ऊपर हैं और कुछ भी करें उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। ऐसे ही लोगों की वजह से सेना की साख को चोट पहुंचती है।

फैसले का कुछ सबक सरकार और समूचे सैन्यतंत्र के लिए भी है। यों रिहाइशी इलाकों में सेना की तैनाती नहीं होनी चाहिए, क्योंकि कानून-व्यवस्था संभालना उसका काम नहीं है। अगर किन्हीं विशेष परिस्थितियों में कहीं सेना तैनात करनी पड़े, तो इस ड्यूटी की बाबत सैनिकों के प्रशिक्षण और उन पर निगरानी रखने की व्यवस्था हो। कई मामलों की जांच यह बता चुकी है कि फर्जी मुठभेड़ के पीछे अपने को कानून से ऊपर समझने की मानसिकता के अलावा पदोन्नति और इनाम का लालच भी काम करता है। इसलिए पुरस्कृत करने से पहले मुठभेड़ के दावे की निष्पक्ष जांच का प्रावधान किया जाए। सर्वोच्च अदालत भी एक मामले की सुनवाई करते हुए यह हिदायत दे चुकी है। सैन्य अदालत का ताजा फैसला भले अपूर्व हो, पर मछिल जैसे और भी वाकये देश में हुए हैं, घाटी में भी और पूर्वोत्तर में भी। इसीलिए सशस्त्र बल विशेषाधिकार जैसे उस कानून पर भी पुनर्विचार करने की जरूरत है जो सुरक्षा बलों को, चाहे वे कुछ भी करें, दंडमुक्ति का आश्वासन देता है। यह अच्छी बात है कि इस कानून के बावजूद मछिल मामले में सजा सुनाई जा सकी। क्या सेना अपना यह रुख बनाए रखेगी!

 

 

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