जनसत्ता 14 नवंबर, 2014: कई दिनों तक चली सियासी रस्साकशी के बाद आखिर महाराष्ट्र में भाजपा की देवेंद्र फडणवीस सरकार ने चतुराई से विश्वास मत हासिल कर लिया। शिवसेना और कांग्रेस हंगामा कर रही हैं कि अल्पमत में होने के नाते भाजपा को मत विभाजन के जरिए विश्वास मत हासिल कराना चाहिए था। मगर अब देर हो चुकी है।

हालांकि ध्वनिमत से विश्वास मत हासिल करना संविधान विरुद्ध नहीं है, पर जिस तरह भाजपा ने इस पूरे घटनाक्रम में चतुराई दिखाई उसे नैतिक रूप से सही नहीं कहा जा सकता। यह पहली बार नहीं था जब किसी दल ने अल्पमत में होते हुए सरकार बनाने का दावा पेश किया। मगर ऐसी स्थिति में राज्यपाल पहले समर्थन देने वाले विधायकों के नामों की सूची को लेकर संतुष्ट होने के बाद ही विश्वास मत की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते रहे हैं। एसआर बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय भी स्पष्ट कह चुका है कि जब कोई अल्पमत दल सरकार बनाने का दावा पेश करे तो उसे सदन में वोट के जरिए विश्वास मत हासिल करना चाहिए। मगर महाराष्ट्र में ऐसा नहीं किया गया तो इसकी एक वजह यह थी कि चुनाव नतीजे आने के बाद से ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भाजपा को बिना शर्त बाहर से समर्थन देने का वचन दोहराती रही है। भाजपा भी कहती रही कि कांग्रेस को छोड़ कर वह किसी का भी सहयोग लेने को तैयार है। मगर भाजपा चूंकि एनसीपी को लगातार भ्रष्टों की पार्टी कह कर उससे दूरी बनाए रखने का एलान करती रही है, उससे उम्मीद की जाती थी कि वह उसका सहयोग न ले। सदन में मत विभाजन न कराने और आनन-फानन में ध्वनिमत से विश्वास हासिल करने के पीछे यही रणनीति थी कि एनसीपी से उसकी नजदीकी जाहिर न हो और उसकी सरकार भी बन जाए। इसमें एनसीपी के विधायकों ने भी नाटकीय ढंग से सहयोग किया। पर इससे भाजपा की नैतिक जवाबदेही कम नहीं हो जाती।

अब भले फडणवीस सरकार छह महीने के लिए सुरक्षित हो गई है, मगर भाजपा को अपना खेमा मजबूत करने का समीकरण बनाना ही होगा। उसका यह समीकरण शिवसेना को साथ रख कर ही बन सकता है। इसलिए कुछ संभावनाएं भाजपा ने खुली छोड़ रखी हैं तो कुछ शिवसेना ने भी। भाजपा का कुल मकसद शिवसेना के पर कतरना है। वह दिखाना चाहती है कि महाराष्ट्र में उसका प्रभाव अधिक है। फिर शिवसेना भी जानती है कि पच्चीस वर्षों का दोनों का साथ इस तरह छूटने से वह कमजोर पड़ सकती है।

यही वजह है कि विश्वास मत की घोषणा हो जाने के बाद शिवसेना ने सदन के भीतर की अपेक्षा बाहर अधिक हंगामा किया। अगर वह सचमुच विपक्ष में बैठना चाहती थी तो क्यों नहीं पहले ही वोट के जरिए विश्वास मत हासिल करने का प्रस्ताव रखा। फिर जिस तरह विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव किया गया और बगैर विपक्ष का नेता चुने विश्वास मत की प्रक्रिया शुरू कर दी गई तभी उसने विरोध क्यों नहीं किया। राज्यपाल को एसआर बोम्मई मामले की याद दिलाना क्यों जरूरी नहीं समझा। जाहिर है, भाजपा को भरोसा है कि कुछ दिनों की खींच-तान के बाद शिवसेना सरकार में आ मिलेगी। इसीलिए केंद्र में मंत्रिमंडल विस्तार के समय भले शिवसेना के किसी सदस्य को जगह नहीं दी गई, मगर पहले से मौजूद उसके एक सदस्य को बेदखल भी नहीं किया गया। आखिर राज्यसभा में शिवसेना के सहयोग के बिना भाजपा को मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। इस तरह कुल मिला कर पूरा घटनाक्रम सोची-समझी रणनीति के तहत घटित किया गया। पर इससे लोकतंत्र की गरिमा को जो आघात पहुंचा है, उसकी भरपाई कैसे होगी।

 

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