इस बार भी रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कोई परिवर्तन नहीं किया है। जबकि ब्याज दरों में कटौती के लिए अनेक आधार गिनाए जा रहे थे। इनमें सबसे खास दलील यह थी कि मुद्रास्फीति में हाल के महीनों में कमी आई है। दूसरे, मौजूदा वित्तवर्ष की दूसरी तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर गिर कर 5.3 फीसद पर आ गई, जो कि पिछली तिमाही में 5.7 फीसद थी। इन दोनों वजहों से उद्योग जगत यह आस लगाए हुए था कि नई मौद्रिक समीक्षा ब्याज दरों में नरमी की खबर लेकर आएगी।
रिजर्व बैंक से यह उम्मीद पिछले दिनों वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी जाहिर की थी। लेकिन उद्योग जगत की आस पूरी नहीं हो पाई। जो लोग बैंकों से लिए गए कर्जों की मासिक किस्तों में राहत मिलने की उम्मीद कर रहे थे उन्हें भी मायूस होना पड़ा है। आखिर वित्तमंत्री के सुझाव और इन सब अपेक्षाओं के विपरीत मौद्रिक समीक्षा क्यों आई? यह मानना ठीक नहीं होगा कि रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन आर्थिक वृद्धि या बाजार में गतिशीलता के तकाजों से बेपरवाह हैं। दरअसल, उन्होंने ब्याज दरों को यथावत रखा है तो इसके पीछे एक सावधानी भरा रुख काम कर रहा है। मुद्रास्फीति की दर में कुछ समय से गिरावट जरूर दर्ज हुई है, पर जैसा कि रघुराम राजन ने भी कहा है, यह गिरावट बेस इफेक्ट यानी पिछले साल के ऊंचे आधार की वजह से भी हो सकती है।
गौरतलब है कि साल भर पहले महंगाई की दर दो अंक में थी। महंगाई का हिसाब पिछले साल की उसी अवधि से तुलना के आधार पर बिठाया जाता है। अगर पिछले साल किसी महीने में महंगाई का ग्राफ ऊंचा रहा हो, तो यही बाद के साल के उसी महीने में गिरावट दर्ज होने का एक प्रमुख कारण बन जाता है। अनेक अर्थशास्त्रियों ने महंगाई को मापने के इस तरीके पर सवाल उठाए हैं और उसे बदलने की जरूरत बताई है। इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
महंगाई थमने की दूसरी वजह अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम में आई गिरावट है। इसलिए रघुराम राजन को लगा कि ब्याज दरों में कटौती के लिए अभी और इंतजार करना ठीक रहेगा। यानी वे इस दिशा में कदम उठाने से पहले आश्वस्त हो जाना चाहते हैं कि मुद्रास्फीति का मौजूदा रुझान बना रहेगा। अगर यह बना रहता है तो अगले साल जनवरी-फरवरी में ब्याज दरें घटाई जा सकती हैं यह संकेत देकर रिजर्व बैंक ने उद्योग जगत की उम्मीदें बनाए रखी हैं। लेकिन सारी उम्मीद मौद्रिक कवायद से ही क्यों की जाए?
निवेश को लेकर कई ढांचागत समस्याएं हैं जिन्हें सरकार ही दूर कर सकती है। फिर, अर्थव्यवस्था की गतिशीलता मांग पर निर्भर करती है। बाजार में मांग का विस्तार तभी हो सकता है जब उन लोगों की भी आय बढ़े जो क्रयशक्ति के लिहाज से हाशिये पर रहे हैं। मेक इन इंडिया नाम से नई विनिर्माण नीति की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने भी इस तकाजे को रेखांकित किया था। लेकिन सवाल उठता है कि क्या सरकार की नीतियां और प्राथमिकताएं ऐसी हैं कि वंचित-कमजोर तबकों की आमदनी में इजाफा हो? उद्योग जगत गरीबों को दी जाने वाली सबसिडी को बेकार का बोझ मानता है, पर उसे मिलने वाली कर-रियायतों पर सवाल उठते ही उसकी त्योरियां चढ़ जाती हैं! अर्थव्यवस्था की गतिशीलता विकास को और समावेशी बनाने के तर्क से परिभाषित की जानी चाहिए।
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