संविधान में आरक्षण का प्रावधान सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से कमजोर और वंचित तबकों के सशक्तीकरण के उद््देश्य से किया था। लेकिन विशेष अवसर के इस सिद्धांत को पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक दलों ने वोट बटोरने का जरिया बना लिया है। यह जहां आरक्षण से जुड़े संवैधानिक मकसद से खिलवाड़ है, वहीं वंचित तबके इस तरह की कवायद से खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। महाराष्ट्र में सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में मराठा समुदाय को सोलह फीसद और मुसलिम समुदाय के लिए पांच फीसद के विशेष आरक्षण का पिछली सरकार का फैसला आरक्षण के सियासी इस्तेमाल का ही और उदाहरण था। कांग्रेस और राकांपा की साझा सरकार ने यह फैसला तब किया जब चुनाव नजदीक आ गए थे। लिहाजा, इसके पीछे क्या मंशा रही होगी यह किसी से छिपा नहीं था। पिछली सरकार के इस निर्णय पर बीते सप्ताह मुंबई उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी। अपने अंतरिम फैसले में उच्च न्यायालय ने आरक्षण की इस घोषणा को असंवैधानिक ठहराते हुए राज्य-शासन को सर्वोच्च अदालत के उस निर्देश की याद दिलाई है जिसके मुताबिक कुल आरक्षण पचास फीसद से अधिक नहीं हो सकता। अपवाद की स्थिति में आरक्षण पचास फीसद से अधिक होने पर सरकार को इसका विश्वसनीय आधार पेश करना होगा। सिर्फ मुसलिम समुदाय को शिक्षण संस्थाओं में दिए गए पांच फीसद आरक्षण को उच्च न्यायालय ने स्थगन आदेश से मुक्त रखा है।

महाराष्ट्र में आरक्षण में किए गए इजाफे से वह तिहत्तर फीसद पर पहुंच गया, जो कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश का उल्लंघन है। लेकिन इस विसंगति को दूर करने का उच्च न्यायालय का फैसला महाराष्ट्र सरकार को रास नहीं आया। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने एलान किया है कि उनकी सरकार उच्च न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च अदालत में अपील करेगी। सभी पार्टियां इस मामले में सरकार के साथ हैं। कांग्रेस और राकांपा का दूसरा रुख हो भी नहीं सकता, क्योंकि उन्हीं की सरकार ने आरक्षण का यह दांव चला था। विचित्र यह है कि रामदास अठावले ने भी हाइकोर्ट के फैसले को चुनौती देने के कदम को सही ठहराया है, जो मानते हैं कि मराठा ताकतवर और संसाधन संपन्न समुदाय है और उसके लिए सोलह फीसद आरक्षण का पिछली सरकार का फैसला गलत था। उच्च न्यायालय में चली सुनवाई से भी जाहिर है कि इस मामले में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की राय नहीं ली गई थी। मराठा समुदाय को पिछड़े वर्ग में रखने के लिए पुख्ता आंकड़े राज्य सरकार पेश नहीं कर सकी। फिर वह किस आधार पर सोचती है कि उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय पलट देगा?

ऐसा लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करना मराठा समुदाय को भुलावे में रखने की तरकीब से अधिक कुछ नहीं है। राज्य सरकार ने कहा है कि अपील इस बिना पर दायर की जाएगी कि संबंधित आरक्षण का प्रस्ताव विधानसभा में लंबित था, फिर उच्च न्यायालय ने उसकी बाबत फैसला कैसे सुना दिया? मगर इस दलील में कोई दम नहीं है, क्योंकि विधानसभा से प्रस्ताव भले पारित न हुआ हो, पिछली सरकार ने इस बारे में अध्यादेश जारी किया था। मराठा समुदाय के बहुत-से लोगों में अपनी मौजूदा स्थिति को लेकर असंतोष हो सकता है, पर इसका कारण यह नहीं कि वे सदियों से सामाजिक और शैक्षिक वंचना और गैर-बराबरी के शिकार रहे हैं, बल्कि यह समाज में व्याप्त व्यापक असंतोष का ही हिस्सा है, जो कि अवसरों की सिकुड़न की उपज है। इसे दूर करने के उपाय आर्थिक प्राथमिकताओं को बदल कर और विकास को समावेशी बना कर ही किए जा सकते हैं। अगर हर किसी को आरक्षण से ही संतुष्ट करने की कोशिश की जाएगी, तो फिर आरक्षण की कोई सीमा नहीं रहेगी!

 

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