जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों में सबसे बड़ा संकट खाद्य उपलब्धता का रेखांकित किया जाता रहा है। पिछले साल के आंकड़ों को देखते हुए यह चिंता अब और गहरी होने लगी है। पिछले साल पूरी दुनिया में बीस करोड़ पचास लाख लोगों ने गंभीर खाद्य संकट का सामना किया। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान की ओर से जारी की गई वैश्विक खाद्य नीति रिपोर्ट में चिंता जाहिर की गई है कि 2050 तक खाद्य संकट की वजह से करीब 7.20 करोड़ लोगों के कुपोषित होने की आशंका है। इसके लिए संस्थान ने दुनिया के तमाम देशों को सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों को विकसित करने के लिए तुरंत सक्रिय होने की जरूरत बताई है।
इसके लिए अनुकूल, समावेशी और लचीला दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है, ताकि संकट की स्थिति में इसे तुरंत प्रभावी रूप से क्रियान्वित किया जा सके। जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा प्रभाव खेती-किसानी पर पड़ा है। कृषि उत्पादन में कमी दर्ज की जाने लगी है। कहीं अतिवृष्टि तो कहीं सूखे की वजह से बड़े पैमाने पर फसलें बर्बाद चली जाती हैं। इसलिए भी खासकर विकासशील और गरीब देशों में खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंता गहरी होती जा रही है।
भारत में कृषि उत्पादन में गिरावट से संकट गहराया
भारत के सामने यह संकट कई वजहों से बड़ा है। एक तो आबादी की दृष्टि से यह दुनिया का सबसे बड़ा देश बन गया है। दूसरी तरफ कृषि उत्पादन के मामले में कमी दर्ज हो रही है। हालांकि खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भर है, मगर जिस तरह उत्पादन में कमी दर्ज हो रही है और जो उत्पादन होता है, उसका पूरी तरह सुरक्षित भंडारण नहीं हो पाता, उसमें खाद्य सुरक्षा कानून का लंबे समय तक पालन कर पाना चुनौती बनता जा रहा है।
पहले ही अस्सी करोड़ से अधिक आबादी को मुफ्त के राशन पर निर्भर रहना पड़ रहा है, उनके पास रोजगार के ऐसे साधन नहीं हैं कि वे अपना भोजन वे खुद जुटा सकें। इस तरह इस आबादी में कुपोषण की गंभीर समस्या है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक भारत में दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले कहीं अधिक कुपोषित बच्चे हैं। केवल एक या दो वक्त पेट भरने के लिए अनाज का प्रबंध हो जाने से पोषण की गारंटी नहीं दी जा सकती। समुचित पोषण के लिए फल, दूध, सब्जियों आदि की पर्याप्त उपलब्धता भी जरूरी है। इसके लिए कोई सरकारी प्रबंध नहीं है। ऐसे में कुपोषण की समस्या यहां बढ़ने की आशंका अधिक है।
मगर भारतीय कृषि नीति और कृषि क्षेत्र के लिए बजट के निर्धारण को देखते हुए यही लगता है कि सरकार अभी इस संकट को लेकर गंभीर नहीं है। पिछले साल समय से पहले गर्मी का मौसम शुरू हो गया, तो गेहूं के दाने सिकुड़ गए। दलहन और तिलहन के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव दिखाई देने लगा। सबसे कमजोर पहलू भंडारण का है। अव्वल तो सरकारी खरीद अपेक्षित लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाती, फिर अनाज को खुले में प्लास्टिक आदि से ढंक कर रख दिया जाता है और असमय या अत्यधिक बारिश की वजह से हर साल बहुत सारा अनाज बर्बाद चला जाता है।
नए गोदाम बनाने की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता और पुराने गोदामों की मरम्मत में दिलचस्पी नहीं दिखाई जाती। ऐसे में खाद्यान्न की सार्वजनिक वितरण प्रणाली अक्सर चरमराती नजर आती है। लाभार्थियों को अनाज उपलब्ध कराया जाता है, उसकी गुणवत्ता स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छी नहीं मानी जाती। इसलिए दुनिया में आसन्न खाद्यान्न संकट के मद्देनजर भारत को कुछ अतिरिक्त रूप से सतर्क रहने की जरूरत है।
