बरसात का मौसम शुरू होते ही मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया जैसी बीमारियां अब मानो स्थायी समस्या का रूप ले चुकी हैं। हर साल इनसे निपटने के लिए चाक-चौबंद व्यवस्था के मंसूबे बांधे जाते हैं, मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात निकलता है। विचित्र है कि जैसे-जैसे इन बीमारियों से मरने वालों की तादाद बढ़नी शुरू होती है, केंद्र और दिल्ली सरकार एक-दूसरे पर दोषारोपण करने लगती हैं। राजनीतिक दल अपनी सियासत चमकाने में जुट जाते हैं। दिल्ली में चौबीस घंटे के भीतर चिकनगुनिया से पांच लोगों की मौत के बाद यही माहौल बन गया है। भाजपा और कांग्रेस दिल्ली सरकार पर निशाना साध रही हैं, तो दिल्ली सरकार केंद्र पर पलटवार कर रही है। जैसे इस समस्या के लिए कोई जिम्मेदार न हो। केंद्रीय स्वास्थ्य विभाग हर बार की तरह इन समस्याओं से निपटने के लिए मदद मुहैया कराने की वचनबद्धता दोहरा कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गया है। समझना मुश्किल नहीं है कि जब देश की राजधानी में मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया जैसी जानलेवा बामारियों से निपटने में ऐसा लापरवाही भरा रवैया है तो दूर-दराज के इलाकों में क्या हाल होगा। पिछले दिनों दिल्ली में मलेरिया से दो लोगों की मौत की पुष्टि हुई तो सरकारों में कुछ हरकत हुई, पर इससे निपटने की तैयारियों पर कोई गंभीरता नहीं दिखाई देती। इस बार भी मलेरिया, चिकनगुनिया और डेंगू के प्रकोप को देखते हुए अस्पतालों में कुछ अतिरिक्त बिस्तर डाल दिए गए हैं, खून वगैरह की मुफ्त जांच के लिए कुछ केंद्र खोल दिए गए हैं, हेल्पलाइन शुरू कर दी गई है। मगर सवाल है कि इन उपायों से मरीजों को भले कुछ सुविधा मिल जाए, पर इन बीमारियों को रोक पाना कहां तक संभव होगा।

यह छिपा तथ्य नहीं है कि मलेरिया, चिकनगुनिया और डेंगू मच्छरों के काटने से होते हैं और मच्छर गंदगी और जल जमाव की वजह से पैदा होते हैं। क्या सरकारों और नगरपालिकाओं को यह सोचने का वक्त नहीं मिलता कि मच्छरों को पैदा होने से रोकने के लिए जो जरूरी उपाय कि जाने चाहिए, वे किए गए हैं? प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया था। इसके लिए तमाम सरकारी कागजों पर विज्ञापन दिया जाने लगा। लगातार जन-जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। मगर उसका कितना असर हो पाया है, क्या इसका आकलन करने की कोशिश की गई। शहरों में जगह-जगह बरसाती पानी का जमाव दिखता है, जहां-तहां कचरे के ढेर पड़े हैं। नगरपालिकाएं कर्मचारियों और संसाधनों की कमी का रोना रोती हैं। स्वयंसेवी संगठनों की मदद से और ठेके पर सफाई वगैरह का काम कराने की कोशिश की जाती है। मगर हालत यह है कि कचरे के निपटान का अब तक कोई व्यावहारिक उपाय नहीं जुटाया जा सका है। ढलाव दूर होने की वजह से निगमों के कर्मचारी कचरा गैर-अधिकृत जगहों पर डाल कर अपनी जिम्मेदारी पूरी समझ लेते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। वहां स्वास्थ्य कर्मियों, संसाधनों, दवाओं वगैरह की कमी और अस्पताल प्रबंधन की बेरुखी के चलते मजबूरी में पहुंचे गरीब मरीज दम तोड़ देते हैं। इसलिए मच्छर और जलजनित बीमारियों के बढ़ते प्रकोप को रोकने का उपाय अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या या जांच केंद्र बढ़ा देना भर नहीं है। इन बीमारियों की असल वजह को समाप्त करने पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है। मगर सरकारें जैसे इसे मौसमी समस्या मान कर सर्दी शुरू होते ही निश्चिंतता की सांस लेने लगती हैं।