तीन साल पहले दिल्ली में चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार के खिलाफ देश भर जन-आक्रोश की लहर दिखी थी। लिहाजा, इस घटना के नाबालिग अपराधी की रिहाई का रास्ता साफ होते ही एक बार फिर गम का आलम दिखा। रिहाई रोकने के लिए दायर की गई याचिका दिल्ली हाईकोर्ट ने खारिज कर दी। लोगों का गमगीन होना स्वाभाविक है, पर हाईकोर्ट के फैसले को कैसे गलत ठहराया जा सकता है? अदालत मौजूदा कानूनों के तहत ही विचार करती है। किशोर न्याय कानून के तहत नाबालिग अपराधी के लिए अधिक से अधिक तीन साल की सजा निर्धारित है। उसके खिलाफ मुकदमा भी सामान्य अदालत में नहीं चलता, बल्कि किशोर न्याय बोर्ड मामले की सुनवाई करता है। नाबालिग अभियुक्त या सजायाफ्ता को सामान्य जेल में नहीं, सुधारगृह में रखा जाता है।
निर्भया मामले के नाबालिग अपराधी ने किशोर न्याय कानून के तहत निर्धारित अधिकतम सजा पूरी कर ली। फिर अदालत किस बिना पर उसकी रिहाई रोक सकती थी? एक उम्मीद इस कानून में संशोधन की कवायद से भी लगाई गई थी। इस मामले के नाबालिग अपराधी ने जैसी दरिंदगी का परिचय दिया उससे पूरा देश स्तब्ध रह गया था। फिर यह बहस चली कि किशोर न्याय कानून में किशोर माने जाने की उम्र अठारह वर्ष से घटा कर सोलह वर्ष कर दी जाए। इस विमर्श का ही असर था कि सरकार को एक विधेयक लाना पड़ा। इसमें हत्या, बलात्कार जैसे संगीन अपराधों की बाबत किशोर उम्र की सीमा दो साल कम कर दी गई है, यानी आरोपी सोलह से अठारह साल के बीच का हो तब भी उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत सामान्य अदालत में मुकदमा चलेगा और दोषी पाए जाने पर उतनी ही सजा दी जाएगी जितनी वयस्क के लिए निर्धारित है। लोकसभा ने इस विधेयक पर मई में मुहर लगा दी, पर यह राज्यसभा में सात महीनों से लंबित है।
अगर यह विधेयक कानून बन चुका होता, तब भी निर्भया मामले में शायद ही कोई फर्क पड़ता, क्योंकि कोई कानून पीछे की तारीख से लागू नहीं होता। लेकिन बात सिर्फ इस एक मामले की नहीं है। लंबित विधेयक का कानून की शक्ल अख्तियार करना जरूरी है, क्योंकि नाबालिगों के अपराध बढ़ रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 2012 की तुलना में 2013 में इसमें करीब सोलह फीसद का इजाफा हुआ। संगीन अपराधों में नाबालिगों की संलिप्तता के आंकड़े भी बढ़े हैं। दूसरी ओर, किशोर न्याय बोर्ड के फैसलों के आंकड़े बताते हैं कि अधिकतर मामलों में डांट-फटकार कर या कुछ समय किसी संस्था की निगरानी में रखने का आदेश देकर छोड़ दिया जाता है।
पिछले साल करीब चौदह फीसद नाबालिग आरोपी ही सुधारगृह भेजे गए। जबकि भारतीय दंड संहिता के तहत पकड़े गए लगभग चौहत्तर फीसद नाबालिग आरोपी सोलह से अठारह वर्ष के थे। कुछ लोगों की दलील है कि किशोर न्याय कानून के मद्देनजर किशोर आयु-सीमा अठारह वर्ष से घटा कर सोलह वर्ष करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि सजा सख्त करने के बजाय किशोर अपराधियों के सुधार पर जोर होना चाहिए। लेकिन लंबित विधेयक में किशोर उम्र-सीमा घटाने का प्रावधान केवल संगीन अपराधों की बाबत किया गया है। हमारा संविधान जब बच्चों को चौदह साल का होने पर काम करने की इजाजत देता है, तो संगीन आपराधिक मामलों में किशोर आयु-सीमा सोलह वर्ष करना तर्कसंगत ही कहा जाएगा। परिस्थितियों का तकाजा तो है ही।