एग्जिट पोल यानी मतदान हो चुकने के बाद नतीजों के पूर्वानुमानों पर कई बार सवाल उठे हैं, मगर इस बार इनकी जैसी किरकिरी हुई, शायद ही पहले कभी हुई हो। यह मान कर चला जाता है कि चाहे मतदान से पहले के सर्वेक्षण हों या एग्जिट पोल, वास्तविक नतीजों से तनिक फर्क हो सकता है। अमूमन सर्वे करने वाली एजेंसी भी थोड़ी-बहुत चूक होने की बात स्वीकार करते हुए अपने पूर्वानुमान जारी करती है। यह भी बताया जाता है कि त्रुटि की संभावना कितनी है, यानी सर्वे के निष्कर्ष और वास्तविक नतीजों में सीटों या मत-प्रतिशत का अधिक से अधिक कितना अंतर हो सकता है। इसके साथ-साथ दावा यही रहता है कि वास्तविक परिणाम, सर्वे के निष्कर्ष जैसा ही आएगा।

इस दावे की बिना पर ही लोग रायशुमारी और एग्जिट पोल में उत्सुकता दिखाते हैं और आंकड़ों पर चर्चा करते हैं। लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव के एग्जिट पोल बुरी तरह पिट गए। हालत यह हुई कि दो टीवी चैनलों को अपने एग्जिट पोल के लिए सार्वजनिक रूप में माफी मांगनी पड़ी। दोनों ने राजग को बहुमत मिलने का दावा किया था, और एक ने तो राजग को एक सौ पचपन सीटें मिलने की बात कही थी। कुछ दूसरे चैनलों ने राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल और कांग्रेस के महागठबंधन को बढ़त दिखाई थी, तो कुछ ने कांटे की टक्कर रहने के आंकड़े दिए थे। नतीजे क्या आए, बताने की जरूरत नहीं। सवाल है, कोई भी एग्जिट पोल सटीक तो क्या, वास्तविक परिणाम की संभावना के करीब तक भी क्यों नहीं पहुंच सका? चुनाव से पहले के बहुत-से सर्वे भी गलत निकले हैं।

पर वैसी सूरत में यह दलील या बहाना पेश किया जाता है कि प्रचार अभियान या उन दिनों की अन्य घटनाओं के कारण मतदाता का मन बाद में बदल सकता है। मगर एग्जिट पोल तो मतदान संपन्न होने के बाद की कवायद है। इसे पड़ चुके वोटों का ही एक नमूना मान कर यह दावा किया जाता है कि नतीजे लगभग ऐसे ही आएंगे। लेकिन कोई भी एग्जिट पोल ऐसा नहीं रहा जिसे नतीजे के करीब कहा जा सके। जहां एक गठबंधन को दो तिहाई बहुमत हासिल हो, वहां कांटे की टक्कर बताने का क्या अर्थ है?

कुछ एग्जिट पोल तो एकदम उलट गए। जिसे बहुमत मिलता दिखाया उसे बुरी तरह शिकस्त खानी पड़ी है। सवाल यह भी है कि क्या सर्वे सियासी खेल का हिस्सा बन गए हैं? इन पूर्वानुमानों को देखते हुए स्वाभाविक ही इनकी कार्यप्रणाली और विश्वसनीयता पर सवाल उठते हैं। सर्वे करने वाली हर एजेंसी यह दावा करते नहीं थकती कि उसने काफी वैज्ञानिक विधि अपनाई हुई है और अपना सैंपल-आकार औरों से बड़ा रखा है ताकि हर आयुवर्ग और हर तबके के मतदाता का मन टटोला जा सके। लेकिन बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद वैज्ञानिकता और निष्पक्षता के उनके दावे धरे के धरे रह गए।

इस नाकामी के बावजूद सर्वे और एग्जिट पोल का धंधा चलता रहेगा, क्योंकि दिलचस्पी और सनसनी के इस बाजार को कोई खोना नहीं चाहेगा। लेकिन चुनाव को जानने-समझने का विज्ञान न सही, कारोबार ही सही, पर उसके लिए भी साख की जरूरत होती है। अगर नतीजे और सर्वे में कोई मेल ही न हो, तो सर्वे कराने की क्या जरूरत है, अटकलपच्चू काम तो कोई भी कर सकता है!