गुजरात के एक सरकारी अस्पताल में नए वार्ड के उद्घाटन के अवसर पर कर्मचारियों के गरबा नृत्य करने की घटना अपनी ड्यूटी के प्रति लापरवाही और मरीजों के प्रति असंवेदनशीलता का ही उदाहरण है। और भी चिंता की बात यह है कि यह घटना अस्पताल के हीमो डायलिसिस वार्ड में रोगियों के सामने हुई। सोशल मीडिया में वायरल हुए वीडियो से जाहिर है कि बिस्तर पर लेटे हुए मरीजों के बीच नर्स सहित अस्पताल के तीस कर्मचारियों ने तेज संगीत पर गरबा नृत्य किया।
बरसों से अस्पताल में काम कर रहे ये चिकित्साकर्मी क्या यह नहीं जानते थे कि वे जो कर रहे हैं उसका मरीजों पर क्या असर पड़ेगा? बाहरी आगंतुकों को ये बताते होंगे कि आइसीयू में भरती मरीज से जब चाहे तब नहीं मिला जा सकता, वहां ऊंची आवाज में बात भी नहीं की जा सकती। मगर वे खुद के लिए सारे नियम-कायदे भूल गए! मीडिया में जब मामले ने तूल पकड़ा, तो राज्य के स्वास्थ्यमंत्री नितिन पटेल को जांच का आदेश देना पड़ा। लेकिन क्या यह काफी है? क्या इससे कर्मचारियों के रवैए में अंतर आएगा और वे मरीजों के प्रति संवेदनशील और अपनी ड्यूटी को लेकर अधिक जवाबदेह बनेंगे?
यह बात समझ से परे है कि जब वार्ड का उद्घाटन स्वयं राज्य के स्वास्थ्यमंत्री के हाथों होना तय था तो कार्यक्रम-सूची में गरबा नृत्य को कैसे शामिल कर लिया गया? इसकी अनुमति आखिर अस्पताल प्रबंधन ने कैसे दे दी? वह भी आईसीयू वार्ड में! इस बारे में अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक ने कहा कि गरबा के लिए अनुमति नहीं ली गई थी। तब सवाल उठता है कि फिर कार्यक्रम किसके कहने पर हुआ। विडंबना यह है कि तमाम आलोचना के बाद भी अस्पताल के एक प्रमुख विभाग के अध्यक्ष फरमाते हैं कि तेज संगीत से रोगियों पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है! यह बयान जले पर नमक छिड़कने जैसा है।
अस्पतालों की बेरुखी के किस्से उजागर होते रहते हैं। सरकारी अस्पतालों का हाल यह है कि कभी ड्यूटी के वक्त डॉक्टर गैरहाजिर मिलते हैं, तो कभी एकदम जरूरी होने पर भी मरीज को भरती करने से मना कर दिया जाता है। कभी अस्पताल से बाहर किसी औरत के प्रसव करने की खबर आती है, तो उसके पीछे हमारी चिकित्सा-व्यवस्था का एक दारुण सच छिपा रहता है। भारत की गिनती दुनिया के उन देशों में होती है जहां स्वास्थ्य के मद में सरकारी खर्च बहुत कम है।
नतीजतन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर दवाओं और कर्मियों की कमी से लेकर जिला अस्पतालों में डॉक्टरों, नर्सों तथा उपकरणों और बिस्तरों की कमी तक, अभाव का ही मंजर दिखता है। रही-सही कसर भ्रष्टाचार और बदइंतजामी से पूरी हो जाती है। लेकिन सरकारी अस्पताल केवल संसाधनों की कमी के शिकार नहीं हैं, वे जवाबदेही के अहसास से भी रिक्त होते जा रहे हैं। लिहाजा, सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था के दो प्रमुख तकाजे हैं। एक यह कि आबंटन यानी संसाधन बढ़ाना। दूसरा, संवेदनशीलता और जवाबदेही का माहौल बनाना। कहने को चिकित्सा सुविधा को सार्वभौम बनाने यानी उसे समूची आबादी तक पहुंचाने का लक्ष्य तय करने की बात जब-तब होती रहती है। लेकिन अगर अस्पतालकर्मी मरीजों के प्रति संवेदनशील नहीं होंगे, तो लक्ष्य कुछ भी हो, कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा।
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