पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले तमाम कारकों और उनसे निपटने के उपायों पर लगातार बात होती रही है। पर शहरों में प्रदूषण की प्रकृति अलग-अलग होने के कारण पर्यावरणीय क्षति की चर्चा केंद्र में रहती है। जबकि कई जगह शहरों के बाहरी इलाकों या कई बार इंसानी बस्तियों के आसपास जिस तरह धड़ल्ले से अवैध खनन गतिविधियां चलती रहती हैं, वे स्थानीय आबादी के साथ-साथ समूचे पर्यावरण के लिए नुकसानदेह साबित होती हैं। यह देश के किसी एक हिस्से में नहीं, खनिज-संपदा से संपन्न सभी राज्यों में हुआ है।

इस संबंध में पर्यावरण विशेषज्ञ लगातार चेतावनी देते रहे हैं। खुद राष्ट्रीय हरित पंचाट ने किसी भी खनन गतिविधि के लिए पर्यावरणीय मंजूरी हासिल करने को अनिवार्य बनाया हुआ है। लेकिन बड़े पैमाने पर खनन का कारोबार करने वाले सारे नियम-कायदों को ताक पर रख कर मनमानी करते रहते हैं। शायद यही वजह है कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने सख्त फैसला करते हुए हिमाचल प्रदेश के सोलन और सिरमौर जिलों में पर्यावरणीय मंजूरी के बिना चलने वाली इक्यानबे खनन इकाइयों को बंद करने और उनकी बिजली आपूर्ति बंद करने का निर्देश दिया है।

इनमें बयालीस इकाइयां सोलन और उनचास सिरमौर जिले में हैं, जहां धड़ल्ले से खनन गतिविधियां चल रही थीं। इन इलाकों में पत्थर तोड़ने वाले सिर्फ दो संयंत्रों को मंजूरी मिली थी। इससे पता चलता है कि नियम-कायदों को धता बता कर यह धंधा कितने बड़े पैमाने पर चल रहा है। हरित पंचाट ने निर्देश जारी किया था कि सभी खनन इकाइयों को बारह जुलाई तक मंजूरी लेनी होगी; राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि मंजूरी के पहले उस इलाके में खनन का कोई काम न होता रहा हो।

नियमों के मुताबिक पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचाए बिना वैज्ञानिक तरीके से खनिज-पदार्थों का खनन सुनिश्चित करने के लिए इसके पट्टा-धारकों के लिए पर्यावरणीय मंजूरी को अनिवार्य बनाया गया है। लेकिन सच यह है कि कानूनों का उल्लंघन और भ्रष्टाचार जितना खनन उद्योग में दिखता है, उतना किसी और क्षेत्र में नहीं। जाहिर है, स्थानीय स्तर पर संबंधित महकमों के उच्च अधिकारियों की मिलीभगत के बिना इतने बड़े पैमाने पर अवैध खनन जारी रहना संभव नहीं है। इसमें राज्य सरकारों के साथ-साथ केंद्र के संबंधित महकमों की भी जवाबदेही बनती है।

दरअसल, राजनीति और नौकरशाही के भ्रष्ट तत्त्वों और माफिया के गठजोड़ से अवैध खनन का जो जाल फैला है, उसने एक ओर देश को अरबों रुपए के राजस्व और पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। यह छिपा नहीं है कि पिछले कई सालों से ज्यादातर खनन के लिए कोई लाइसेंस नहीं लिया गया, पर्यावरणीय मंजूरी हासिल नहीं की गई और खनिजों को देश से बाहर भेजा गया।

यह पर्यावरण, स्थानीय आबादी के हितों और इससे जुड़े नियम-कायदों को पलीता लगाने का मामला है। इस रास्ते खनन के कारोबार में लगे लोग तो अकूत धन कमा लेते हैं, पर स्थानीय लोगों को न केवल कुछ हासिल नहीं होता, बल्कि बहुतों को अपने घर-परिवेश से भी उजड़ना पड़ता है। खनिज संपदा की इस तरह लूट से यह सवाल भी खड़ा होता है कि हमारी भावी पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक संसाधन बचेंगे या नहीं। सही है कि इस्पात और कई अन्य उद्योगों के लिए खनिज निकालना जरूरी है। लेकिन अतिशय खनन टिकाऊ विकास का परिचायक नहीं हो सकता।

 

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