अर्थव्यवस्था में सुस्ती के जो संकेत आ रहे हैं, वे इस बात के प्रमाण हैं कि आर्थिकी के क्षेत्र में सब कुछ संतोषजनक नहीं है। अर्थव्यवस्था में सुस्ती का संकेत बताता है कि उद्योग, कारोबार, बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र, सेवा क्षेत्र, दूरसंचार जैसे प्रमुख क्षेत्रों की हालत न तो पिछले कुछ समय में अच्छी रही है और न आने वाले महीनों में अच्छी रहनी है। बैंकिंग क्षेत्र एनपीए की मार झेल रहा है। वित्तीय क्षेत्र की हालत भी कोई मजबूत नहीं है। रोजगार भी अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा होता है। वर्तमान में रोजगार की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। आंकड़े बता रहे हैं कि पिछले साढ़े चार दशक में इस वक्त बेरोजगारी की दर उच्चतम स्तर पर है। नोटबंदी के बाद अर्थव्यवस्था के कमजोर पड़ने का जो सिलसिला शुरू हुआ था उससे अभी तक मुक्ति नहीं मिली है। हालांकि अर्थव्यवस्था के लिए घरेलू कारणों के अलावा बाहरी कारण भी काफी हद तक जिम्मेदार होते हैं। ऐसे में अगर भारत सरकार का वित्त मंत्रालय यह कह रहा है कि पिछले वित्त वर्ष (2018-19) में अर्थव्यवस्था सुस्त रही तो इससे भविष्य का भी संकेत मिलता है।

आखिर क्या कारण हैं जिनका अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा। सरकार की ओर से तीन बड़े कारण बताए जा रहे हैं। पहला तो यह कि मांग में कमी बनी रही, जिससे घरेलू उपभोक्ता बाजार कमजोर बना रहा। दूसरी वजह स्थायी निवेश में बढ़ोतरी न के बराबर हुई। तीसरा कारण निर्यात सुस्त रहना था। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने इस साल फरवरी में 2018-19 की आर्थिक वृद्धि दर का पूर्वानुमान 7.20 फीसद से घटा कर सात फीसद कर दिया था। पिछले पांच साल में यह पहला मौका है जब आर्थिक वृद्धि की रफ्तार सबसे कम है। हालांकि पिछले महीने रिजर्व बैंक ने रेपो दर में कटौती का जो कदम उठाया था, उसका मकसद ही अर्थव्यवस्था में तेजी लाने की दिशा में बढ़ना था। रिजर्व बैंक के अलावा अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी फिच और एशियाई विकास बैंक (एडीबी) ने आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान में कमी की बात कही थी। एडीबी ने वैश्विक हालात के मद्देनजर भारत के जीडीपी पूर्वानुमान को 7.6 फीसद से घटा कर 7.2 फीसद कर दिया था। फिच ने अर्थव्यवस्था में उम्मीद से कम रफ्तार की बात कही थी और वित्त वर्ष 2019-20 के लिए 6.8 फीसद जीडीपी का अनुमान व्यक्त किया था, जो पहले सात फीसद था। जाहिर है, हालात कई महीनों से ऐसे बने हुए हैं, जिनसे अर्थव्यवस्था की दर पर असर पड़े बिना रह नहीं सकता।

सरकार के लिए चुनौतियां कम नहीं हैं। अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने के लिए उदार और तर्कसंगत कदम उठाने की जरूरत है। हालांकि भारत के लिए आने वाले दिन ज्यादा मुश्किल भरे हो सकते हैं, खासकर ऊर्जा संबंधी जरूरतें पूरी और निर्यात के मोर्चे पर स्थिति मजबूत करने के लिए। हालात चिंताजनक इसलिए हैं कि देश का विनिर्माण क्षेत्र डगमगाया हुआ है। आम चुनाव की वजह से भी अनिश्चितता का माहौल है, जिसका आर्थिकी पर असर पड़ रहा है। इस अप्रैल में विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले आठ महीने में सबसे कम रही। इस क्षेत्र में सुस्ती का मतलब है कि बाजार में खरीदार नहीं हैं। खर्च घटाने के लिए कंपनियां नौकरियों में कटौती कर रही हैं। आज जो हालात बने हुए हैं उनमें जल्द सुधार के आसार नजर नहीं आ रहे। नई सरकार अर्थव्यवस्था के लिए क्या, कैसी नीतियां बनाती है, काफी कुछ इस पर ही निर्भर करेगा।