कल्याणकारी योजनाओं में आधार कार्ड को अनिवार्य बनाने पर सर्वोच्च न्यायालय की रोक से सरकार की विशिष्ट पहचान पत्र संबंधी योजना स्वाभाविक रूप से प्रभावित हुई है। हालांकि संविधान पीठ अभी इस विषय पर विचार करेगा कि बायोमेट्रिक आंकड़े इकट्ठा करने से व्यक्ति की निजता के अधिकार का हनन होता है या नहीं और क्या निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है।

फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय के तीन सदस्यीय पीठ ने व्यवस्था दी है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मिट्टी के तेल और रसोई गैस वितरण प्रणाली के अलावा और किसी सरकारी योजना में आधार कार्ड का उल्लेख करना जरूरी नहीं है। हालांकि इन योजनाओं में भी आधार कार्ड को अनिवार्य नहीं बनाया जाना चाहिए। निस्संदेह इस व्यवस्था से ऐसे बहुत सारे लोगों को कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिल पाएगा, जिनके पास आधार कार्ड नहीं है। कई राज्य सरकारों ने वेतन, भविष्य निधि के भुगतान, संपत्ति और विवाह के पंजीकरण आदि में आधार कार्ड का उल्लेख जरूरी कर दिया है। अदालत ने सरकारों से यह शर्त वापस लेने को कहा है।

आधार कार्ड की अनिवार्यता इस मकसद से तय की गई थी कि इसके जरिए दफ्तरों में कर्मचारियों की उपस्थिति और सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार आदि पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। मगर आधार कार्ड के लिए लोगों से जिस तरह की जानकारियां मांगी जाती हैं, उन्हें देखते हुए आशंका जाहिर की जाने लगी कि इससे अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसियां बेजा फायदा उठा सकती हैं।

आपराधिक मामलों में बेकसूर लोगों को भी बेवजह प्रताड़ित करने का रास्ता खुल सकता है। वित्त संबंधी संसद की स्थायी समिति ने भी कहा था कि विशिष्ट पहचान पत्र संबंधी योजना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से खतरनाक साबित हो सकती है। फिर कुछ लोगों ने कहा कि इससे लोगों की निजता का मौलिक अधिकार बाधित होता है। इसी को लेकर अदालत में याचिका दायर की गई। इस पर सरकार ने कहा कि निजता किसी का मौलिक अधिकार नहीं हो सकती। इस पर अदालत के निर्णय का इंतजार है।

हालांकि शुरू में ही विशिष्ट पहचान पत्र के मामले में वैधानिक व्यवस्था तय कर दी गई होती, तो यह उलझन पैदा न होने पाती। मगर मनमोहन सिंह सरकार ने इसकी पेचीदगियों को दूर किए बिना हड़बड़ी में आधार कार्ड बनाने की वृहत्तर योजना लागू कर दी। अब तक इस पर भारी रकम खर्च हो चुकी है, पर इसके औचित्य और भविष्य को लेकर असमंजस की स्थिति बन गई है। आधार कार्ड को लेकर मोदी सरकार भी कुछ उसी तरह की हड़बड़ी में नजर आ रही है।

निजता को अगर मौलिक अधिकार के दायरे से बाहर करने का कानून बना भी दिया जाए तो इस बात का भरोसा दिला पाना कठिन है कि विशिष्ट पहचान पत्र में दर्ज की गई जानकारियां इंटरनेट पर पहुंचने के बाद किस तरह सुरक्षित रह पाएंगी। इस अड़चन को दूर करने के बाद ही आधार की अनिवार्यता पर विचार किया जा सकता है।

 

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