राजकिशोर
अशोकजी (अशोक सेकसरिया) ने एक बार कहा था कि मेरी बड़ी इच्छा है कि पहाड़ पर एक छोटा-सा होटल खोलूं जहां शुद्ध-सात्विक भोजन कम कीमत पर बिकता हो। मेरी इच्छा यह रही है कि एक किताब की दुकान खोलूं, जहां श्रेष्ठ पुस्तकें न्यूनतम दाम पर बिकती हों। दोनों में एक पूरकता है। होटल शरीर की जरूरत पूरी करता है और किताबों की दुनिया मन की।
दोनों में एक और रिश्ता है। एक लोकप्रिय बुद्धिमत्ता यह है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा का वास होता है। जॉर्ज बरनार्ड शॉ की आदत थी कि वे किसी भी वाक्य को सिर के बल खड़ा कर देते थे, जिससे एक नया, और बेहतर, अर्थ निकलता है। उनका कहना था कि आत्मा स्वस्थ हो तभी शरीर स्वस्थ होता है। जाहिर है, स्वस्थ शरीर अपने आप में कोई अलग और स्वतंत्र इकाई नहीं है। वह खुद अपने को संचालित नहीं करता। वह तो आत्मा का उपनिवेश है। यों शरीर भी, आत्मा की तरह, लचीला होता है और आत्मा की तरह ही अगड़म-बगड़म को बहुत दिनों तक सहन करता रहता है। उसके बाद, आत्मा तो विद्रोह नहीं करती, क्योंकि अपने ही खिलाफ कोई कैसे विद्रोह कर सकता है, पर शरीर पर हमसे ज्यादा प्रकृति के नियमों का नियंत्रण है, इसलिए वह विद्रोह कर देता है और डॉक्टर फीस तो ले लेते हैं, पर इलाज नहीं कर पाते।
अशोकजी को अपनी इच्छा पूरी करने का अवसर नहीं मिला, पर मुझे ‘वनडे मैच’ की तरह मिल गया। पिछले शनिवार को हमारी सोसायटी में दिवाली मेला लगा। मेरा मन हुआ कि मैं भी एक स्टॉल ले लूं और किताबें बेचूं। सोसायटी के अध्यक्ष और सचिव ने प्रोत्साहित किया, तो कई अन्य व्यक्तियों ने इसे एक मजाक समझा- अजी, मेले में कहीं किताबें बिकती हैं! नियम यह है कि जिस चीज के लिए मना किया जाता है, मन उधर ही भागता है। सो मैंने सोचा कि किताबों का स्टॉल जरूर लगाऊंगा- भले ही चार-पांच किताबें बिकें। बड़ों के लिए प्रकाशित किताबें बेचना, वह भी एक छोटी-सी सोसायटी में, दिवास्वप्न है, यह समझते हुए मैंने तय किया कि बच्चों की किताबों का स्टॉल लगाऊंगा।
लेकिन किस भाषा की? कई शुभचिंतकों ने सलाह दी कि अंगरेजी की किताबें रखिएगा तो कुछ बिक भी जाएंगी, पर हिंदी की किताबें? तौबा-तौबा! आजकल कोई शरीफ आदमी हिंदी पढ़ता कहां है? शरीफ घरों के बच्चे भी शरीफ होते हैं, इसलिए वे तो हिंदी को छूते भी नहीं हैं। पर अंगरेजी की किताबें बेचने के लिए मेरा दुष्ट मन तैयार नहीं हुआ। एक बात तो यह है कि अंगरेजी खुद ही फैल रही है, उसमें मैं क्यों सहयोग दूं? दूसरी बात यह थी कि मैं कोई मुनाफा कमाने के लिए तो स्टॉल नहीं ले रहा हूं। मेरा लक्ष्य है, हिंदी का प्रचार-प्रसार करना। शायद इसीलिए सोसायटी के पदाधिकारियों ने स्टॉल शुल्क माफ कर दिया।
अब प्रश्न यह उठा कि किताबें कहां से लाऊं। चिल्ड्रेंस बुक ट्रस्ट और नेशनल बुक ट्रस्ट, ये दो परिचित नाम दिमाग में उभरे। फिर सोचा कि नौकरशाही में फंसे ये बड़े संस्थान किताबें शायद ही उधार दें। मैं प्रकाशन संस्थान के मालिक हरीशचंद्र शर्मा का बहुत आभारी हूं कि उन्होंने अपने यहां से प्रकाशित बाल साहित्य मुझे, बोलते ही, उपलब्ध करा दिया। साथ ही, यह भी कहा कि मैं तीस प्रतिशत तक छूट दे सकता हूं। यह रियायत बहुत काम आई। शर्माजी ने लगभग डेढ़ सौ किताबें भिजवा दीं। अगले दिन मेला था। अपने स्टॉल पर किताबों को बेतरतीबी से सजा कर हम एक दिन के बादशाह हो गए।
खुशी से ज्यादा आश्चर्य की बात यह थी कि हमने कुल तैंतीस किताबें बेचीं, जिनका मूल्य ग्यारह सौ रुपए से ज्यादा प्राप्त हुआ। कुछ किताबें बच्चों ने खुद खरीदीं, ज्यादा किताबें बड़ों ने अपने बच्चों के लिए खरीदीं। मैं उम्मीद कर रहा था कि बाल साहित्य की झांकी लेने के लिए बच्चे ज्यादा आएंगे। पर यह हमारी निराशा का कारण साबित हुआ। यह हमें पता है कि आजकल मध्य और उच्च वर्ग तो छोड़िए, गरीबों के बच्चे भी अंगरेजी माध्यम से पढ़ते हैं, पर हम यह उम्मीद कर रहे थे कि उन्हें थोड़ी-बहुत हिंदी तो आती ही होगी और कहानियां पढ़ने के लिए जो उत्सुक न हो, वह बच्चा ही क्या! लेकिन जैसे महा-विध्वंस के बाद मनु सूने नयनों से प्रलय प्रवाह देख रहे थे, वैसे ही हमने भी पाया कि सुंदर-सजीले लड़के और लड़कियां हमारे स्टॉल के पास फटकना तो दूर, उधर झांकते भी नहीं थे। लेकिन आखिरकार ‘कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे’ की नौबत नहीं आई। अगले दिन जब मैंने हरीशचंद्रजी को बताया कि इतनी किताबें बिकीं और इतने पैसे आए, तब वे खुशी से उछल पड़े।
अब मेरा मन है, अपने इलाके में जगह-जगह इसी तरह स्टॉल लगाऊं और किताबें बेचूं।
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