विष्णु नागर

लोग तो इनकी ढाल तभी बन सकते हैं जब ये भी लोगों की ढाल बनें, जब उन्हें ये रोजगार दें, विकास में पूरी हिस्सेदारी दें। जब आप गरीबी हटाओ या अच्छे दिन आने वाले हैं, जैसे नारों से लोगों को लुभाएं मगर करें वही जो पिछली सरकार कर रही थी बल्कि उसे और भी तत्परता से करें, तो लोग आपकी ढाल बनें तो बनें कैसे?

सर्वोच्च अदालत ने पहले भी कई बार यह बात कही है और पिछले सप्ताह एक सुनवाई के दौरान फिर से उसने इसे दोहराया है कि नेता लोग यह समझते क्यों नहीं कि उन्हें असली सुरक्षा जनता ही दे सकती है। पर उन्हें तो अपने दाएं, बाएं और बीच में भी बंदूक लेकर चलने वाले सुरक्षाकर्मी ही चाहिए। अदालत ने आगे कहा कि उत्तर प्रदेश विधान परिषद में विपक्ष के नेता और बसपा सरकार में मंत्री रह चुके नसीमुद्दीन सिद्दीकी तो राज्य के लोकप्रिय नेता माने जाते हैं, फिर उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए चौदह पुलिसकर्मी क्यों चाहिए? सरकार का धन आप लोग इस तरह बर्बाद करने पर क्यों तुले हैं? अदालत ने यह सख्त टिप्पणी उस समय की, जब उसके सामने मामला यह आया कि सिद्दीकी  को जेड श्रेणी की सुरक्षा देने का जो आदेश इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दिया था उसका पालन राज्य सरकार क्यों नहीं कर रही है?

उच्च न्यायालय ने इसे अपनी अवहेलना मान कर उत्तर प्रदेश के मुख्य गृह सचिव नीरज गुप्ता को अदालत में पेश करने का आदेश दिया था। इसके विरुद्ध राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट गई, जहां उसने देश की सर्वोच्च अदालत को याद दिलाई कि इस अदालत ने तमाम निचली अदालतों को सलाह दे रखी है कि वे किसी की सरकारी सुरक्षा का मामला अपने सामने आने पर संयम बरतें और अगर सुरक्षा-स्थिति के आकलन के बाद यह पाया जाए कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है तो ऐसे व्यक्ति को सुरक्षा देने या उसे पहले से अधिक सुरक्षा देने का आदेश न दिया जाए।

इसके पहले पिछले साल जून में भी बसपा सरकार के एक पूर्व मंत्री रामवीर उपाध्याय जब अपनी वाइ श्रेणी की सुरक्षा समाप्त करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे, तो उन्हें भी अदालत ने वाइ श्रेणी की सुरक्षा प्रदान करने से इनकार कर दिया था, जो उन्हें पहले मंत्री के रूप में उपलब्ध थी। उपाध्याय के वकील ने अदालत में यह पोच तर्क दिया था कि सुरक्षा न मिलने की स्थिति में छत्तीसगढ़ में माओवादियों ने कांग्रेसी नेताओं के साथ जो किया था, वैसा ही इन पूर्व मंत्री के साथ भी हो सकता है। मगर अदालत ने वकील से पूछा था कि पहले यह बताएं कि उस हमले में जो पुलिस वाले मारे गए थे, उनके परिवारजनों को माओवादियों से कोई सुरक्षा प्रदान की गई है? क्या सलवा जुडूम के नेता महेंद्र करमा के परिवारजनों को सुरक्षा दी गई है जिनकी उस हमले में हत्या कर दी गई थी? और क्या मंत्रियों-पूर्व मंत्रियों को ही खतरा होता है, साधारण लोगों को नहीं? क्या उनकी परवाह करने की जरूरत नहीं है?
सर्वोच्च अदालत एक अरसे से इस मामले में कड़ा रुख अपनाती आ रही है। जब भी उसके सामने नेताओं आदि को सुरक्षा देने का मामला आया है, उसने हमेशा सरकार से यह पूछा है कि पहले यह बताएं कि इस बीच सरकार ने आम लोगों की सुरक्षा के लिए क्या खास इंतजाम किए हैं? एक बार तो पूर्व मुख्य न्यायाधीश जीएस सिंघवी के दो सदस्यीय पीठ ने तीखे शब्दों में कहा था कि जब भारत की सड़कों पर साधारण लोग ही असुरक्षित हैं तो फिर यहां आकर अमेरिकी विदेशमंत्री भी खुद को कैसे सुरक्षित महसूस कर सकते हैं? एक बार उसने कहा था कि अगर आम लोगों की सुरक्षा की परवाह की गई होती तो पांच साल की बच्ची का दिल्ली जैसे शहर में उसी अपार्टमेंट में अपहरण के बाद बलात्कार नहीं हुआ होता।

आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली जैसे महानगर में 253 लोगों की सुरक्षा के लिए महज एक पुलिसवाला है जबकि 427 महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले महानुभावों की सुरक्षा के लिए 5183 पुलिसकर्मी तैनात हैं, यानी औसतन एक नेता या अफसर आदि के लिए बीस लोग तैनात हैं। यानी पुलिस जिसका काम आम लोगों को सुरक्षा देना बताया जाता है, वह अगर वाकई अपना यह काम गंभीरता से करना चाहे तो उसके लिए यह संभव नहीं है क्योंकि पुलिस का एक बड़ा हिस्सा तो इन नेताओं की तथाकथित सुरक्षा में लगा रहता है। यहां तथाकथित सुरक्षा इसलिए कहा जा रहा है कि करीब तीन दशक पहले राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इन बड़े लोगों के यहां तैनात पुलिसकर्मियों से अर्दली, ड्राइवर, रसोइये, चपरासी आदि का काम लिया जाता है और तब से अब तक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। आज भी नेता आदि अपना व्यक्तिगत सुरक्षा अधिकारी अपनी पसंद के व्यक्ति को रखना चाहते हैं और क्यों चाहते हैं, यह समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है।

नसीमुद्दीन सिद्दीकी मामले में अदालत का कथन न्याय की दृष्टि से बिल्कुल दुरुस्त है। लेकिन सब जानते हैं कि विपक्षी नेता को अधिक सुरक्षा न देने का असली कारण राजनीतिक है, सपा-बसपा की आपसी टकराहट है वरना अपनों को सुरक्षा देने के मामले में समाजवादी पार्टी या बसपा या किसी और पार्टी की किसी भी राज्य की सरकार बेहद उदारता बरतती है, उसे ऐसे मामलों में अदालतों के आदेशों-निर्देशों की कोई परवाह नहीं होती। इतनी बार अदालतों से लताड़ खाने के बावजूद क्या कोई परिवर्तन सचमुच दीखता है? क्या आम लोग पहले से अधिक सुरक्षित नजर आते हैं?
सच यह है कि सरकारें मानने लगी हैं कि अदालतों का काम है उन्हें लताड़ लगाना और उनका काम है अच्छे बच्चे की तरह सिर झुका कर उसे चुपचाप सुन लेना, बाकी करना वही है जो कि करना है। अदालत ने अपराधियों को सुरक्षा देने पर भी सरकारों को खूब लताड़ लगाई थी, मगर उन्हें पहले की ही तरह सुरक्षा हासिल है। मोदी सरकार भी इसकी अपवाद नहीं है। उसके मुखिया ने छप्पन इंच का सीना तानते हुए मुजफ्फरनगर कांड के अभियुक्त और सांसद संगीत सोम को जेड प्लस सुरक्षा दी है। विपक्ष ने आलोचना करके अपना धर्म निबाह दिया तो जवाब में केंद्र सरकार ने कह दिया कि सोम जनप्रतिनिधि हैं और गृह मंत्रालय का आकलन है कि उन्हें सर्वोच्च स्तर पर सुरक्षा देने की जरूरत है।

कांग्रेस ने भी ऐसे हर मामले में मनमानी की थी। उसने 1984 के तमाम ज्यादा और कम बदनाम दोषियों को सुरक्षा दे रखी थी, जो अब भी जारी है। पिछली सरकार ने जब पूंजीपति मुकेश अंबानी को जेड प्लस सुरक्षा देने का फैसला किया था तो इस कदम की सख्त आलोचना करने के लिए खुद सुप्रीम कोर्ट को सामने आना पड़ा था। उसने तब कहा था कि मुंबई के एक व्यापारी को सुरक्षा देना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, वह निजी एजेंसी से अपनी सुरक्षा करवाएं।

हालांकि मुकेश अंबानी की निजी सुरक्षा व्यवस्था पहले से है, मगर अलकायदा की कथित धमकी के बाद इस आधार पर अंबानी ने सुरक्षा मांगी थी कि निजी एजेंसियों के सुरक्षाकर्मियों को वे सुरक्षा उपकरण रखने की इजाजत नहीं है जो कि सरकारी सुरक्षा एजेंसियों के पास उपलब्ध होते हैं। यह अलग बात है कि इस मामले को शांत करने की कोशिश में यह बताया गया कि अंबानी को दी गई सुरक्षा का सारा खर्च वे स्वयं उठाएंगे। मगर फिर यह सवाल उठा कि सरकार निजी सुरक्षा देने की एजेंसी तो नहीं है।

मगर अंबानी ही अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जिन्हें बिना किसी वाजिब आधार के सुरक्षा दी गई है। कई फिल्मी स्टारों, बिल्डरों, संतों आदि को भी ऐसी ही सुरक्षा मिली हुई है। बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचारियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों से खतरा बताते हुए सुरक्षा मांगी थी। पिछली सरकार में मंत्री रहे बेनी प्रसाद वर्मा की सुरक्षा इस आधार पर बढ़ा कर जेड प्लस कर दी गई थी कि इस्पात मंत्री के नाते उन्हें बार-बार छत्तीसगढ़ जाना पड़ता है और वह मुलायम सिंह यादव के धुर-विरोधी भी हैं इसलिए वे खतरे में हैं। पोंटी चड््ढा को- जिनकी हत्या हो गई- पता नहीं किस आधार पर उनके अपने राज्य उत्तर प्रदेश के बजाय पंजाब सरकार ने सुरक्षा दे रखी थी। मगर इसी अकाली सरकार ने नवजोत सिंह सिद्धू की सुरक्षा सिर्फ इसलिए समाप्त कर दी कि उन्होंने हाल ही में हरियाणा विधानसभा चुनावों में सत्ताधारी दल की खुलकर आलोचना की थी। अलबत्ता बाद में भाजपा के दबाव के कारण यह सुरक्षा बहाल कर दी गई। सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कई बार कहा है कि उन्हें सुरक्षा नहीं चाहिए, मगर उन्हें यह सुरक्षा मिली हुई है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस बार भी इस मामले में सही जगह पर अंगुली रखी है, हालांकि जिस किस्म की राजनीति पूरे देश में चल रही है उसमें कितने नेताओं को लोगों द्वारा दी जानेवाली सुरक्षा पर सचमुच विश्वास है? नेताओं ने अपने को इस काबिल ही नहीं छोड़ा है कि लोग उनकी ढाल बन कर खड़े हों। जो नेताओं की ढाल बन सकते हैं उनकी तरफ तो नेताओं के सुरक्षाकर्मियों की बंदूकें तनी होती हैं, उन्हें नेता इन बंदूकों और कारों के काफिले से भयभीत-आतंकित करवाते हैं और जो इनकी असुरक्षा की जड़ में हैं उनके साथ ही ये पांच सितारा होटलों में लंच-डिनर किया करते हैं।

जब सरकारें उद्योगपतियों-व्यापारियों के निजी हितों की सार्वजनिक हितों की बलि देकर पूर्ति करती हैं, जब सरकारें श्रम की परवाह न करते हुए केवल पूंजी की सेवा में लगी रहती हैं, जब उनके अपने कार्यकर्ताओं, लठैतों, अपराधियों, छोटे-बड़े प्रापर्टी डीलरों, तमाम किस्म के दलालों, गुंडों-बदमाशों की रक्षा-सुरक्षा प्राथमिकता में सबसे ऊपर है, तब साधारण लोग परिदृश्य में आते ही कहां हैं? जब विकास की अवधारणा में कहीं किसानों-मजदूरों-आदिवासियों-दलितों के हित और पर्यावरण का संरक्षण प्राथमिकता की सूची में सबसे नीचे है तो फिर वे लोग कहां से आएं जो इनकी ढाल बन सकें, इनके लिए अपनी जान देने को तैयार हों?

लोग तो इनकी ढाल तभी बन सकते हैं जब ये भी लोगों की ढाल बनें, जब उन्हें ये रोजगार दें, घर दें, विकास में उन्हें पूरी हिस्सेदारी दें। जब आप गरीबी हटाओ या अच्छे दिन आने वाले हैं, जैसे नारों से लोगों को लुभाएं मगर करें वही जो पिछली और उससे पिछली सरकार कर रही थी बल्कि उसे और भी तत्परता से करें, तो लोग आपकी ढाल बनें तो बनें कैसे?

बहुत-से लोगों को सुरक्षा इसलिए नहीं चाहिए कि वे सचमुच असुरक्षित हैं, उन्हें सुरक्षा इसलिए चाहिए कि लोगों पर उनका रौब पड़े, जबकि ऐसी बातें एक लोकतांत्रिक सोच का नेता सोच भी नहीं सकता, केवल वही सोच सकता है जो अंदर से भयंकर सामंत हो। किसी भी समाज में जब नेता या नौकरशाह या उद्योगपति या साधु-संत कहे जाने वाले आदमी अपना महत्त्व इस तरह स्थापित करे तो उस समाज की असली हालत के बारे में सोचने की जरूरत है।
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