कुमारेंद्र सिंह सेंगर
समाज जिस तेजी से तकनीक के मामले में आधुनिक होता जा रहा है उसी तेजी से आपसी संबंधों के मामले में पिछड़ता जा रहा है। एक तरफ लोग इस बात से प्रसन्न हैं कि देश मंगल तक जा पहुंचा है, लेकिन इस बात के लिए दुखी नहीं हैं कि रिश्तों के नाम पर समाज रसातल में जा रहा है। लोग बड़े ही गर्व के साथ अक्सर यह बताते हैं कि वे सुदूर देशों में रहने वाले लोगों के साथ संपर्क में हैं, मगर इस बात से हीन भावना महसूस नहीं होती कि उन्हें अपने पड़ोसी के बारे में कोई जानकारी नहीं है। वे विदेशी संस्कृति को अपनाए जाने के जबर्दस्त समर्थक दिखते हैं, लेकिन अपने ही देशवासियों के साथ सौहार्द स्थापित करने में पीछे रह जाते हैं। जिनके लिए गलत तौर-तरीकों और अनैतिक कामों में फिजूलखर्ची करने, जाम छलकाने या पार्टियों-समारोहों में एक झटके में लाखों रुपए फूंक देना ‘स्टेटस सिंबल’ होता है, वे सामाजिक सद्भाव, अपनत्व, भाईचारा बढ़ाने वाले त्योहारों-पर्वों के आयोजनों को ढकोसला बताने से नहीं चूकते हैं।
इस तरह के अनेक उदाहरण हमें अपने आसपास देखने को मिल सकते हैं। देखा जाए तो कहीं न कहीं यह एक तरह से सामाजिक सद्भाव को कमजोर करने की ही कोशिश है। यह सामाजिक प्रवृत्ति में आपसी वैमनस्य, विद्वेष और तनाव के रूप में फैलती दिख रही है और इसका असर अब उन पर्व-त्योहारों, समारोहों आदि पर पड़ने लगा है जो अब तक किसी न किसी रूप में समाज में सद्भाव बढ़ाने में सहायक का काम करते रहे हैं, आपस में स्नेह बनाए रखने में मददगार होते हैं और समन्वय या सामूहिकता की भावना का विकास करते हैं।
दरअसल, अब त्योहारों को सामाजिक उत्सव के तौर पर नहीं, बल्कि हिंदू-मुस्लिम के दायरे में रख कर मनाया जाता है। स्त्री-पुरुष और धर्मनिरपेक्षता या सांप्रदायिकता के नाम पर अलग-अलग वर्ग बनने लगे हैं। हर धर्म या समुदाय के उत्सव का मूल मकसद आपसी प्रेम और सद्भाव बढ़ाना ही होता है। इसलिए किसी भी पर्व-त्योहार को सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के चश्मे से देखने से बेहतर है कि उसके जरिए सामाजिक सौहार्द स्थापित करने के प्रयास किए जाएं। पर्व-त्योहारों को फिजूल, अपव्यय वाला बताने के स्थान पर उसमें समाहित शिक्षाओं और मेलजोल की संस्कृति का प्रचार किया जाना चाहिए।
दिवाली का ही उदाहरण सामने रखा जा सकता है। यह तो साफ है कि दिवाली अपने आप में स्वच्छता लाने का, अंधेरा मिटाने का और सबके साथ खुशियां बांटने का पर्व है। इस मौके पर घरों को रंग-रोगन से सजा कर, रंगोली से निखार कर, दीये की रोशनी में उल्लास दर्शा कर, सबको गले लगा मिठाई खिला कर सामाजिक समरसता फैलाने का संदेश ही मिलता है। हम सभी के प्रयास यही होने चाहिए कि पर्व-त्योहारों के माध्यम से लोगों के बीच सद्भाव पैदा किया जा सके, आपसी विद्वेष दूर हो। किसी समय इसके लिए लोगों से अलग से आग्रह करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। लोग खुद ही दिवाली को सुरक्षित तरीके से मनाए जाने के बारे में चर्चा करते थे। अब कई तरह की सलाहों के नाम पर प्रकारांतर से दिवाली न मनाए जाने की बात की जाती है। जितनी समस्या है, उससे ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर इसे बताया जाता है। हालांकि वायु या ध्वनि प्रदूषण की बातों में सच्चाई भी है। इसका ध्यान रखा जाए तो दिवाली साल का एक बेहतरीन सामाजिक तोहफा है। लेकिन यह याद रखना चाहिए कि हमारे किसी कदम से समाज या किसी दूसरे समुदाय को नुकसान न हो, उसे परेशानी या असुविधा न महसूस हो। कोई भी त्योहार समाज में दूरी बढाÞने नहीं, मिटाने का सबक लेकर आता है, इसे उसी रूप में देखना चाहिए!
(kumarendra.blogspot.in)