अक्षय दुबे

‘साथी’ लंबे अरसे बाद मैंने अपने गांव की ओर रुख किया था। गांव के ठीक मुहाने पर स्थित पान के ठेले पर खड़े एक युवक के चेहरे पर अनायास उभरी मुस्कराहट ने मुझे वहां रुकने की इजाजत दे दी। करीब जाने पर उस युवक ने हाल-चाल पूछते हुए कहा- ‘अक्षय भाई कैसे हो? मैं संतोष…!’ यह सुन कर मैं अवाक रह गया! दरअसल, मेरे चौंकने की वजह उसकी बदहाली से रूबरू होना था। गांव की प्राथमिक शाला में मेरा सहपाठी रह चुका संतोष पढ़ने-लिखने में काफी होशियार था। पांचवीं कक्षा में उसने प्रथम स्थान भी हासिल किया। लेकिन उसी संतोष का आज औपचारिक शिक्षा से कोई वास्ता नहीं है। वह पेट पालने की खातिर मजदूरी पर निर्भर है।

शिक्षा से वंचित कर उसे अंधकार में धकेलने की जिम्मेदारी उन परिस्थितियों की है, जब पांचवीं कक्षा के बाद संतोष अपने माता-पिता के साथ कमाने-खाने दिल्ली चला गया और पलायन के बाद का परिणाम शिक्षित बचपन का अशिक्षित जवानी में ढेर हो जाना रहा। जाहिर है, उनके सामने पढ़ाई-लिखाई के बरक्स अपनी जिंदगी बचा पाने का सवाल ज्यादा बड़ा था। नतीजा सामने है। आज न जाने कितने संतोष ऐसी परिस्थितियों के कारण शिक्षा से वंचित रह गए और इस फेहरिस्त में कितने ऐसे बच्चों का नाम शामिल होना बाकी है जो अशिक्षा के अंधकार में डूब जाएंगे!

गांवों से शहरों की ओर पलायन हमारे कथित लोकतांत्रिक देश की व्यवस्था के सामने एक बड़ी चुनौती रही है। कोई भी शौक से अपनी जमीन नहीं छोड़ता। पलायन के एक प्रवृत्ति तौर पर कायम होने के पीछे बहुत सारे कारण, पक्ष और प्रभावकारी शक्तियां काम करती हैं। लेकिन गरीबी और दो जून की रोटी की जुगत में पलायन करने वालों की संख्या ही अधिक होती है जो अपना घर-बार छोड़ महानगरों में खून-पसीना एक करने निकल पड़ते हैं। गांवों से कट कर शहरों में खाक छानने की नौबत आना यकीनन विकराल समस्या है। लेकिन उससे बड़ी चुनौती शहर कमाने-खाने आए इन श्रमवीरों के नौनिहालों की स्थिति है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर यही हालत रही तो भावी भारत के लिए नतीजे कितने निराशाजनक हो सकते हैं। गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव जैसे हालात वहां से मोहभंग के लिए काफी हैं, लेकिन पलायन का प्रकोप उससे अधिक तकलीफदेह है। नतीजतन, इसकी चपेट में आया परिवार यहां-वहां मेहनत-मजदूरी के लिए भटकता है तो दूसरी ओर, इसी भटकाव में भावी भारत गुम हो जाता है!

किसी भी प्रगतिशील देश का भविष्य शिक्षित समाज की परिकल्पना में पुष्पित-पल्लवित होता है, लेकिन पलायन से पैदा हुए इन परिणामों को लेकर शायद कभी ध्यान नहीं दिया गया। अगर थोड़ी भी गंभीरता दिखाई गई होती तो जेहन में यह विचार जरूर आता कि किसी भी व्यक्ति के विकास में उसे प्राप्त पारिवारिक-सामाजिक और शैक्षणिक माहौल की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। एक जिम्मेदार सरकार इस समस्या के हल के लिए हमेशा तैयार खड़ी रहती। बहरहाल, अस्त-व्यस्त पारिवारिक वातावरण, बेतरतीब सामाजिक माहौल और शिक्षा से कटे पलायन की मार झेलते परिवारों के बच्चों का वजूद क्या स्वर्णिम भारत का सपना देखने वालों को दु:स्वप्न नहीं दिखाता?

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