सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली में सरकार के गठन की बाबत एक बार फिर केंद्र को आड़े हाथों लिया है। इस बार अदालत ने उपराज्यपाल को भी नहीं बख्शा। अब तक कोई फैसला न हो पाने से नाराज अदालत ने दोनों को खरी-खोटी सुनाते हुए कहा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राष्ट्रपति-शासन हमेशा के लिए नहीं चल सकता; लोकतांत्रिक सरकार लोगों का अधिकार है। आम आदमी पार्टी की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत पहले भी इस आशय की टिप्पणी और केंद्र से जवाब तलब कर चुकी है। लेकिन मामला अधर में रहा है तो इसीलिए कि पारदर्शी तरीके से सरकार बनने की कोई सूरत नजर नहीं आती। पिछली सुनवाई के दौरान केंद्र ने कहा था कि उपराज्यपाल ने सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का न्योता देने की अनुमति पाने के लिए राष्ट्रपति को पत्र लिखा है। मंगलवार को हुई ताजा सुनवाई में केंद्र ने अदालत को सूचित किया कि राष्ट्रपति ने इजाजत दे दी है। पर सवाल है कि राष्ट्रपति को इस तरह का पत्र लिखने की जरूरत उपराज्यपाल को तभी क्यों महसूस हुई, जब विधानसभा को निलंबित स्थिति में रखे जाने पर अदालत ने केंद्र को तलब किया।
अगर उपराज्यपाल को लग रहा था कि भाजपा सरकार बनाने में सक्षम है, तो उन्होंने यह पहल और पहले क्यों नहीं की? इस पर अदालत ने ठीक ही सवाल उठाया है कि सुनवाई से ऐन पहले ही केंद्र कोई न कोई बयान लेकर क्यों आ जाता है? दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो सबसे बड़े दल के नाते उपराज्यपाल ने सबसे पहले भाजपा को ही सरकार बनाने का निमंत्रण दिया था। सत्तर सदस्यीय विधानसभा में तब भाजपा के सदस्यों की संख्या इकतीस थी; अकाली दल के एक सदस्य के साथ उसका आंकड़ा बत्तीस का था। मगर भाजपा ने यह कहते हुए मना कर दिया था कि उसके पास आवश्यक संख्या-बल नहीं है। भाजपा के तब के तीन विधायक अब सांसद हैं, यानी उसकी सदस्य संख्या में तीन की कमी आ चुकी है। अब वह किस मुंह से सरकार बनाने का दावा कर सकती है, जब उसने अभी से तीन सदस्य ज्यादा रहने पर मना कर दिया था? राज्यपाल जब किसी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करते हैं तो पहले उसके बहुमत का हिसाब देखते हैं। अरविंद केजरीवाल को सरकार बनाने के लिए तभी न्योता दिया गया, जब कांग्रेस ने उन्हें समर्थन देने का पत्र सौंपा। भाजपा के बहुमत को लेकर उपराज्यपाल किस तरह आश्वस्त हैं?
इस बीच रिक्त तीन विधानसभा सीटों पर उपचुनाव की घोषणा हो चुकी है। अगर ये तीनों सीटें फिर से भाजपा के पास आ जाएं, तो भी उसका आंकड़ा वहीं पहुंचेगा जहां पहले था, जब उसने सरकार बनाने से मना कर दिया था। यों भाजपा यह दोहराती रही है कि वह चुनाव के लिए तैयार है, मगर इस बीच बहुमत का जुगाड़ बिठाने की कोशिश में बेजा तरीके अपनाने के आरोप भी उस पर लगे हैं। पिछले महीने के पहले हफ्ते में आम आदमी पार्टी ने एक स्टिंग के जरिए खुलासा किया कि भाजपा के शेरसिंह डागर और रघुवीर दहिया ने किस तरह उसके कुछ विधायकों को तोड़ने के लिए धन का लालच दिया था। बचाव की मुद्रा में आई भाजपा ने भले इस पेशकश से पल्ला झाड़ लिया हो, लेकिन स्टिंग की सच्चाई पर वह भी सवाल नहीं उठा सकी। बहरहाल, सर्वोच्च अदालत नेलोगों के लोकतांत्रिक अधिकार से जुड़ा सही सवाल उठाया है। इसका जवाब यह नहीं होना चाहिए कि खरीद-फरोख्त से सरकार बने।