अभी त्रिलोकपुरी के जख्म ताजा ही थे कि दिल्ली के एक और हिस्से से सांप्रदायिक तनाव की खबर आ गई। उत्तर-पश्चिम दिल्ली के बवाना में मोहर्रम से एक रोज पहले कुछ लोगों ने ‘महापंचायत’ आयोजित कर एलान किया कि वे ताजिये का जुलूस नहीं निकलने देंगे। यह विचित्र घोषणा थी, क्योंकि मोहर्रम का जुलूस कोई नई बात नहीं है, इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए देश के और हिस्सों की तरह इस इलाके में भी यह जुलूस हर साल निकलता आया है। फिर भी, झगड़े की नौबत को टालने के लिए बवाना के मुसलिम समुदाय के लोग एक अन्य, छोटे मार्ग से जुलूस ले जाने को राजी हो गए। फिर किसी तरह की पंचायत की कोई जरूरत नहीं थी। लेकिन जहां सुनियोजित रूप से तनाव पैदा करने का खेल चल रहा हो, सौहार्द का रास्ता कैसे निकलने दिया जा सकता है! ऐसे समय जब दिल्ली के त्रिलोकपुरी, फिर नंदनगरी, मजनू का टीला और तीमारपुर में भी सांप्रदायिक टकराव पैदा करने की कोशिश हो चुकी थी, पुलिस को पूरी सतर्कता से पेश आना चाहिए था। पर उसने उस कथित महापंचायत को होने दिया, जिसके लिए प्रशासन से कोई अनुमति नहीं ली गई थी। इससे पुलिस के रवैए पर भी सवाल उठते हैं और यह अंदेशा पैदा होता है कि क्या आगे भी ऐसे मौकों पर पुलिस कोताही बरतेगी?

इस जमावड़े के आयोजकों में भाजपा के बवाना के विधायक भी शामिल थे, जहां उन्होंने कहा कि मुसलमान अपने घर में जो चाहे करें, पर हम उन्हें जुलूस निकालने नहीं देंगे। इससे उनकी मंशा साफ जाहिर हो जाती है। इस मौके पर जो दूसरे भाषण हुए उनमें भी ऐसी बातें कही गर्इं। भड़काऊ बातों से भरा एक पोस्टर भी इलाके में जगह-जगह दिखा, जिसे वाट्सएप के जरिए भी प्रसारित किया गया। ये सब तथ्य इसी ओर इशारा करते हैं कि जो हुआ पूरी तैयारी से हुआ। क्या इसलिए कि दिल्ली में विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि बन चुकी है और भाजपा इस फिराक में है कि किसी तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के हालात बनाए जा सकें? उत्तर प्रदेश में इस तरह की कोशिश ‘लव जिहाद’ के विरोध के नाम पर की गई थी। बवाना में मोहर्रम के जुलूस को निशाना बनाया गया। मगर बहाने जो हों, ऐसी सारी घटनाओं के पीछे इरादा एक है, अलग-अलग धार्मिक पहचान को टकराहट के रास्ते पर लाना और अपने सियासी एजेंडे को आगे बढ़ाना। बवाना के ज्यादातर मुसलिम पुनर्वास कॉलोनियों में रहते हैं। दिल्ली की ऐसी बस्तियों में दलितों की संख्या सबसे ज्यादा है। जो समुदाय भाजपा के परंपरागत समर्थक नहीं रहे हैं उन्हें खासकर टकराव का एक पक्ष बनाने का प्रयास हो रहा है।

दिल्ली में भी वही तरकीब अपनाई गई जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आजमाई जा चुकी है। इससे उसे विधानसभा चुनाव में क्या हासिल होगा, पता नहीं, पर सवाल है कि जब भाजपा सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी है, तब भी वह संकीर्णता का दामन नहीं छोड़ना चाहती? स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अगर देश को तेजी से विकास करना है तो कम से कम दस साल के लिए लोग जाति, धर्म के झगड़े भुला दें। कैसी विडंबना है कि उनके आह्वान का असर खुद उनकी पार्टी के लोगों पर नहीं हुआ है। एक टीवी चैनल को दिए साक्षात्कार में उन्होंने मुसलमानों को देशभक्त कहा। पर उनकी पार्टी में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो मुसलिम समुदाय के खिलाफ विष-वमन से बाज नहीं आते। अगर प्रधानमंत्री स्वाधीनता दिवस पर की गई अपनी अपील को लेकर संजीदा हैं, तो इस प्रवृत्ति पर लगाम क्यों नहीं लगाते! क्या इसी तरह सबका साथ सबका विकास का नारा फलीभूत होगा?