इबोला की चुनौती

पश्चिमी अफ्रीका के कुछ देशों खासकर गिनी के दूरदराज वाले इलाके जेरेकोर से शुरू हुए इबोला वायरस के संक्रमण ने दुनिया भर में लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। यह चिकित्सा सेवा के सामने एक बड़ी चुनौती है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इबोला के वायरस से उपजे खतरे के मद््देनजर बीते शुक्रवार को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महामारी बताते हुए वैश्विक स्वास्थ्य-आपातकाल की घोषणा कर दी। गौरतलब है कि इस बीमारी की चपेट में आए हजारों लोगों की मौत हो चुकी है। इसका सबसे ज्यादा प्रकोप पश्चिमी अफ्रीका में सामने आया है, जिससे गिनी, सिएरा लियोन, लाइबेरिया और कुछ हद तक नाइजीरिया में रहने वाले लोगों के सामने गंभीर खतरा है। लेकिन इस बीमारी की प्रकृति को देखते हुए दुनिया में इसके कहीं भी फैलने और कहर बरपाने के अंदेशे से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि भारत में अभी इस बीमारी का कोई मामला सामने नहीं आया है, लेकिन इसके मद््देनजर एहतियाती कदम उठाए गए हैं। किसी दूसरे देश से शुरू होकर स्वाइन फ्लू जैसी बीमारी ने अपने यहां भी कैसा आतंक मचा दिया था, लोग भूले नहीं हैं।

बंदर, चमगादड़ और सूअर के खून या शरीर के तरल पदार्थ से फैलने वाले इबोला वायरस की जद में अगर कोई इंसान आ जाता है तो यह दूसरे लोगों में फैलने की भी वजह बन जाता है। अभी तक चूंकि इस बीमारी का कोई इलाज नहीं ढूंढ़ा जा सका है, इसलिए बुखार आने से शुरू होकर यह बीमारी सिर और मांसपेशियों में दर्द के अलावा यकृत और गुर्दे तक को बुरी तरह अपनी चपेट में ले लेती है और फिर भीतरी और बाहरी रक्तस्राव के बाद मरीज के बचने की गुंजाइश बेहद कम हो जाती है। हालत यह है कि इससे संक्रमित व्यक्ति की मौत के बाद अगर उसके शरीर को ठीक तरह से नष्ट नहीं किया गया तब भी उस वायरस के फैलने की आशंका बनी रहती है। इस तरह के खतरनाक रोगों की रोकथाम या इनसे लड़ने के मोर्चे पर कमजोरी के चलते ही इनके जीवाणु या विषाणु अपने अनुकूल आबोहवा पाकर पहले जानवरों और फिर लोगों में संक्रमित होते हैं और बेलगाम हो जाते हैं। इबोला के विषाणु सबसे पहले 1976 में सूडान और कांगो में पाए गए थे और उसके बाद उप-सहारा के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में भी फैले थे। तब से पिछले साल तक अमूमन हर साल कम से कम एक हजार लोग इसकी जद में आते रहे हैं। लेकिन हैरानी है कि दुनिया के विकसित देशों में चिकित्सा के क्षेत्र में लगभग हर समय चलते रहने वाले प्रयोगों में इस बीमारी का कोई कारगर इलाज खोजने के तकाजे को पिछले चार दशक के दौरान कभी गंभीरता से नहीं लिया गया।
’विवेक कुमार सारस्वत, फरीदाबाद

नीति बनाम नीयत

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने साफ कहा है कि ब्याज दरें घटाना नहीं, महंगाई पर काबू पाना उनकी प्राथमिकता है। उनके मुकाबिक जरूरत से ज्यादा समय तक वे ब्याज दरों को ऊंचे स्तर पर नहीं रखेंगे। मानसून की स्थिति को देखते हुए अगले साल जनवरी-फरवरी से पहले इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। इसीलिए रिजर्व बैंक ने एक तरफ महंगाई के मौजूदा ग्राफ और आने वाले दिनों में इसके और चढ़ने के अंदेशे का खयाल रखा है, और दूसरी तरफ, बैंकों को चालीस हजार करोड़ का अतिरिक्त कर्ज दे सकने में सक्षम बनाया है। ब्याज दरें स्थिर रखने का निर्णय रिजर्व बैंक ने शायद यह सोच कर भी किया होगा कि औद्योगिक उत्पादन में सिकुड़न या ठहराव का सिलसिला हाल में टूटने के संकेत आए हैं। इस तरह रेपो दरों को कम न किए जाने से विकास दर पर नकारात्मक असर पड़ने की जो आशंका जताई जा रही है वह अतिरंजित है। फिर, विकास दर को केवल सस्ती ब्याज दरों से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता।

अगर खुदरा महंगाई नौ-दस फीसद हो तो बाजार में मांग बढ़ने की आशा नहीं की जा सकती। लेकिन व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह मौद्रिक समीक्षा से ज्यादा आर्थिक नीतियों से जुड़ा मसला है। अर्थव्यवस्था को गति देने का सबसे स्थायी फार्मूला यह है कि उन लोगों की भी आय में इजाफा हो जो क्रय-शक्ति के लिहाज से हाशिये पर रहे हैं। पर समस्या यह है कि हमारे नीति नियामक इस तकाजे को कोई तवज्जो नहीं देते।
’रमेश सांगवान, रोहतक