अंग्रेजी में इस्तेमाल होने वाला ‘पोस्ट ट्रुथ’ यानी ‘सच से परे’ का पद इन दिनों काफी लोकप्रिय हो गया है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आॅक्सफोर्ड डिक्शनरी ने इसे ‘इस साल का सबसे ज्यादा प्रचलित शब्द’ घोषित किया है। हिंदी में इसका सही अर्थ क्या है, इसकी शत-प्रतिशत व्याख्या सामने नहीं आई है। लेकिन लगातार कई घटनाओं ने इस शब्द को चर्चा में ला दिया है। जब जनमत निर्माण करने में वस्तुगत तथ्य भावनात्मक अपील और निजी विश्वासों से कम प्रभावशाली हो जाए, उस परिस्थिति को ही जानकार ‘पोस्ट ट्रुथ’ मानते हैं। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की जीत के बाद राजनीतिक विश्लेषकों के बीच इस शब्द को लेकर कुछ ज्यादा ही चर्चा हो रही है। डोनाल्ड ट्रंप की जीत का अनुमान किसी भी राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय विश्लेषकों को नहीं था। लेकिन यह हो गया। भारत सहित दुनिया भर में कई दक्षिणपंथी पार्टियों के सत्ता में आने को भी विश्लेषक इसी नजरिए से देखते हैं।
इस बारे में माना जाता है कि ऐसे बिंदुओं को उछाला जाता है, जिससे लोग भावना में बह कर उनके समर्थक हो जाते हैं। जबकि उनके द्वारा कहे गए शब्दों या वाक्यों में तथ्यों का घोर अभाव होता है। हाल में हमारे देश में काले धन और पाकिस्तान के मुद्दे को लेकर जो बातें कही गर्इं, उनमें यह तथ्य नहीं खोजा गया कि कालाधन कहां से और कैसे लाया जाएगा! अब यह साफ भी हो रहा है। लेकिन लोगों के दिल में जरूर यह बात घर कर गई है कि जब कालाधन आएगा तो भारत की आर्थिक स्थिति सुधर जाएगी। इसी तरह, डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया से आतंकवाद को समाप्त करने का नारा दिया तो लोग अब यह सवाल नहीं पूछ रहे हैं कि आतंकवाद दूर करने के उपाय क्या हैं और ट्रंप इसे कैसे इस्तेमाल में लाएंगे। लेकिन लोगों को लगा कि कम से कम अमेरिका में इसके बाद आतंकवाद समाप्त हो जाएगा।
इस तरह के कथनों और ऐसे विश्वास को ही हम ‘पोस्ट ट्रुथ’ कह सकते हैं। इसे ‘सत्य से परे’ या ‘सत्योत्तर’ भी कहा सकता है। दरअसल, ऐसा माहौल बन गया है या कि बना दिया गया है कि हम सच्चाई से परे चीजों पर भी तुरंत विश्वास कर लेते हैं। विश्वास ऐसे विषय पर किया जा सकता है, जिसके विषय में हम नहीं जान रहे हैं। लेकिन जो हम जान-समझ रहे हैं, फिर भी हम सच्चाई को नकार कर केवल भावनात्मक आधार पर विश्वास करने को विवश हैं तो निश्चित ही या तो हम वास्तविकता से दूर जा रहे हैं या मिथक को ही विश्वास के लायक मान रहे हैं।
महज अफवाह पर घंटे भर में पूरे देश में हजारों क्व्ािंटल नमक बिकने की घटना हो या झटके में गणेश की मूर्तियों द्वारा दूध पीने के भ्रम का प्रचार, विवेकशील समाज में आधारहीन मुद्दों पर बहस तर्कों और वास्तविकताओं से परे भावनात्मक प्रचार हमें भटकाव की ओर ले जाता है। नोटबंदी के पीछे भी कुछ ऐसे ही बेतुके और निराधार तर्क प्रस्तुत कर लोगों को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया जा रहा है कि बड़े नोटों के विमुद्रीकरण से राष्ट्रहित और कालाधन रोकना जुड़ा है। एक महीने का समय गुजरने के बाद भी अब तक लोगों को अपने ही पैसे सहजता से नहीं मिल पा रहे हैं। जिन बैंकों और गिनती के एटीएम मशीनों में पैसे होते हैं, वहां कतार छोटी नहीं हो रही है। दूसरी ओर लगातार करोड़ों रुपए के नए नोट बरामद हो रहे हैं। आखिर ये नोट उनके तक कैसे पहुंच रहे हैं, यह गंभीर प्रश्न है। एक माह के दौरान अनगिनत बार नियमों में सुधार किए गए, लेकिन लोगों की परेशानी कम नहीं हो रही है। सरकार पहले काला धन पर अंकुश लगाने के नाम पर विमुद्रीकरण को सही ठहरा रही थी और अब कैशलेस यानी नकदीरहित व्यवस्था और ‘प्लास्टिक मनी’ का ज्ञान बांट रही है। इस व्यवस्था में आखिर फायदा किसे होगा, यह विचार करने योग्य है। सवाल यह भी है कि जब उद्देश्य नकदीरहित व्यवस्था था, तो एक हजार और पांच सौ के नोटों के विमुद्रीकरण से कालाधन पर अंकुश लगाने और आतंकवाद को समाप्त करने का शोर क्यों मचा!
ऐसा नहीं है कि ‘पोस्ट ट्रुथ’ या सत्य से परे जैसे शब्दों को मोहजाल बना कर इनसे राजनीतिक लाभ पहली बार लिया जा रहा है। ऐसे प्रयास पहले भी लगातार होते रहे हैं। लेकिन आज समय बदल गया है। पहले लोगों से संवाद करने के लिए इतने मजबूत स्तंभ नहीं थ, जिससे अधिसंख्य लोगों तक बात नहीं पहुंच पाती थी। आज सोशल मीडिया से लेकर हर तरह के साधन लोगों के पास मौजूद हैं। इसमें मिनटों में जनसंख्या के बड़े हिस्से तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है। सत्य से परे ऐसे युग में हमेशा पल में प्रलय जैसी संभावना बनी रहती है!

