उन्हें विष दिया जाता रहा… और वे पीती रहीं, मरती रहीं! मर कर जीती रहीं… जख्म जब कोई जेहनो-दिल को मिला, तो जिंदगी का एक दरीचा खुला…! ये लाइनें आज सऊदी अरब की उन उन्नीस मुसलिम महिलाओं पर सटीक बैठ रही हैं, जिन्होंने पहली बार वहां हुए निगम के चुनावों में सफलता अर्जित की है। अभी सऊदी अरब में राजशाही है और वहां के सख्त नियम-कायदों के बीच महिलाओं का चुनाव जीतना एक बड़ी कामयाबी है। इसलिए निश्चित रूप से यह सफलता सामान्य रूप में इस्लामी दुनिया के लिए और खासतौर पर सऊदी अरब के लिए मील का पत्थर साबित होगी।

अरब देशों में महिलाओं के लिए बहुत ही कठिन और जटिल कानून हैं। उन्हें गाड़ी चलाने तक की मनाही है। ऐसी स्थिति में निगम चुनावों में उनकी जीत सऊदी अरब में महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक अहम कदम माना जा रहा है, क्योंकि यहां इससे पहले चुनाव और मतदान के दरवाजे महिलाओं के लिए बंद थे। नगर परिषद के चुनाव के लिए खड़े हुए करीब सात हजार उम्मीदवारों में नौ सौ उन्यासी महिलाएं थीं। नगर परिषद एकमात्र सरकारी निकाय है, जिसके लिए चयन देश के नागरिक करते हैं।

गौरतलब है कि सऊदी अरब में निगम चुनावों में महिलाओं की भागीदारी का फैसला दिवंगत शाह अब्दुल्ला ने किया था। उन्होंने पिछली जनवरी में निधन से पहले तीस महिलाओं को देश की शीर्ष सलाहकार शूरा परिषद में नियुक्त किया था। उसके बाद महिलाओं के लिए चुनाव में भाग लेने और लड़ने का रास्ता साफ हो गया था। शाह अब्दुल्ला इस बात को लेकर काफी फिक्रमंद थे कि महिलाएं अपने परिवार के पुरुष सदस्य की इजाजत के बिना यात्रा नहीं कर सकतीं, संरक्षक की अनुमति के बिना विवाह नहीं कर सकतीं, कहीं नौकरी नहीं कर सकतीं, सिर से पांव तक अपने आपको परदे में रख कर ही घर से बाहर निकल सकती हैं, उन्हें विरासत में पुरुषों के बराबर का हिस्सा नहीं मिलता, बहुत से ऐसे रोजगार हैं जो उनके लिए प्रतिबंधित हैं।

दरअसल, जब भी सऊदी अरब की महिलाओं की बात होती है तो उन पर लागू सामाजिक पाबंदिया ही चर्चा का केंद्र बन जाती हैं। लेकिन जब मैंने सऊदी की महिलाओं में शिक्षा के आंकड़े देखा तो यह मेरे लिए चौंकाने वाले थे। बल्कि यह भारत के लिए भी एक सबक है कि एक धार्मिक नियम-कायदों में सिमटे समाज में महिलाओं में साक्षरता दर निन्यानबे फीसद है। सऊदी अरब के शिक्षा मंत्रालय के एक आंकड़े के अनुसार 2009 में उनसठ हजार नौ सौ अड़तालीस लड़कियों ने स्नातक की डिग्री हासिल की, जबकि पुरुषों की संख्या उनसे कम पचपन हजार आठ सौ बयालीस ही रही। सऊदी में महिलाओं की उच्च शिक्षा को लेकर पहल काफी पहले 1962 में रियाद में शुरू हो गई थी। तब महिलाओं को पढ़ाई घर से ही करनी होती थी और वे केवल परीक्षा देने के लिए संस्थान में आ सकती थीं।

लेकिन आज की हकीकत यह है कि शिक्षा के मामले में सऊदी अरब की महिलाएं कई देशों से आगे हैं और उनकी प्रतिभा का सही इस्तेमाल नहीं हो सका है। प्रत्यक्ष रूप से इसका कारण वहां के समाज में गहरे तक पैठा रूढ़िवाद है। लेकिन सऊदी का यह चुनाव वहां की महिलाओं के लिए एक उम्मीद से कम नहीं। जब चुन कर आई कोई महिला पहली बार वहां की शासन व्यवस्था में हिस्सेदारी निभाएगी तो उसका हासिल कुछ और ही होगा।

ऐसा नहीं है कि महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई आसान रही हो। उन्नीसवीं सदी के अंत में महिला संगठनों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज उठानी शुरू की थी और 1904 में गठित पहले अंतरराष्ट्रीय महिला संगठनों को काफी उतार-चढ़ाव देखने को मिले। 1906 में फिनलैंड की महिलाओं को मताधिकार प्रदान किए गए और उसके बाद 1917 में रूस, 1920 में अमेरिका और 1944 में फ्रांस और 1946 में इटली, 1947 में चीन को महिला मताधिकारों की स्वीकृति प्रदान की गई थी। जबकि भारत में 1947 में ही आजादी के समय से महिलाओं को मताधिकार की स्वतंत्रता प्राप्त है।

बहरहाल, मुस्लिम महिलाओं की यह जीत आतंक फैलाने वालों के गाल पर चांटा मारने जैसा हैं। ये महिलाएं उन हजारों महिलाओं की ताकत बनेंगी, जो बेड़ियों से बाहर आने को आतुर हैं। यह उम्मीद स्वाभाविक है कि उनकी जीत अब इस्लाम के लिए बदलाव का एक और संदेश साबित होगी। हाल ही में भारत के दस राज्यों में मुसलिम महिलाओं पर एक सर्वेक्षण किया गया, जिसमें उन महिलाओं ने लैंगिक बराबरी पर जोर देते हुए बहुपत्नी विवाह और पुरुषों द्वारा एकतरफा मौखिक तलाक दिए जाने जैसी कुरीतियों के खिलाफ एकदम स्पष्ट फैसला दिया। नब्बे प्रतिशत से अधिक महिलाओं ने इन कुरीतियों पर विराम लगाने का सर्मथन किया। उम्मीद की जानी चाहिए कि बदलाव के दौर में सऊदी अरब की राजनीति में महिलाओं के दखल की शुरुआत भारत में भी एक सकारात्मक असर डालेगा।