पिछले दिनों मेरे बेटे के स्कूल में दो दिनों तक चलने वाले स्वच्छता अभियान के तहत स्कूल के बरामदे, दीवारें और कक्षाओं के पंखे आदि की सफाई का कार्यक्रम तय किया गया।

सभी बच्चों से कहा गया कि वे अपने घर से एप्रेन यानी सफाई करते समय पहने जाने वाले कपड़े, डस्टर, पुराने अखबार और धूल-गंदगी से अपनी सुरक्षा के लिए मास्क और सेनिटाइजर लेकर आएं। जाहिर है, यह कुछ समय पहले राष्ट्रीय स्तर पर घोषित ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का असर था। लेकिन बच्चे इससे बेहद उत्साहित थे! यह जानकर अच्छा लगा कि बच्चों को इस नैतिक और सामाजिक मूल्य के प्रति जागरूक किया जा रहा है।

उस दिन स्कूल से लौट कर बेटे ने बताया कि हमने डस्टर से दीवारें साफ कीं, बेंचों पर चढ़ कर पंखे साफ किए और ऐसा करते हुए अपने दोस्तों के साथ खूब मस्ती भी की। इस पूरे प्रकरण में उसने जो बताया, उसमें शरारतें ज्यादा थीं और काम कम। मन में सवाल उठे और चिंता हुई कि अगर इस सफाई अभियान के चलते शरारतन या लापरवाही के चलते किसी बच्चे के साथ कोई दुर्घटना घट जाती तो! बच्चे स्वाभाविक रूप से चंचल होते हैं और उनसे पूरे सलीके से इस तरह के काम करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। सफाई को बच्चों के भीतर जिम्मेदारी के रूप में जरूर विकासित किया जाए, लेकिन उसके लिए उन्हें जोखिम में डालना क्या ठीक है?

इसी अभियान के तहत कुछ समय पहले टीवी चैनलों पर सरकारी दफ्तरों में नेताजी के औचक निरीक्षण दौरे और उनके द्वारा अंगुली फिरा कर फर्नीचर पर जमी धूल की परतें, कोने में बिसूरते कचरे और छत पर लगे जालों की ओर इशारा करते दिखाया गया। हमारे दिल्ली विश्वविद्यालय में भी कुछ रोचक नजारे देखने को मिले। छात्राएं सफाई करने वाले द्रव्य कॉलिन और डस्टर हाथ में लिए और चेहरे पर मास्क लगाए कक्षाओं की खिड़की और दरवाजों के शीशे साफ कर रही थीं तो बाहर सड़क किनारे बिखरे पत्ते और कागज भी बटोर रही थीं।

इन सबका जम कर फोटो सेशन भी चला। खूब तस्वीरें खिंचवाई गर्इं और प्रचारित-प्रसारित की गर्इं। हालांकि कुछ तस्वीरों की असलियत भी बाद में सामने आ गर्इं। शायद यह खुद प्रधानमंत्री के हाथ में झाड़ू लेकर सफाई का संदेश जारी करने का असर था। वरना आम दिनों में सफाई को लेकर हमारे तमाम नेताओं और जनता तक का रवैया क्या रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है।

बहरहाल, स्वच्छता के जरूरी संदेश के बीच कुछ हकीकतें भी देखने को मिलीं। कुछ दिन पहले मैं कॉलेज जाने के लिए बस स्टॉप पर खड़ी थी। सुबह लगभग आठ बजे रहे थे। तभी एक लंबी महंगी कार में सवार एक हिप्पीनुमा शक्ल वाले तथाकथित आधुनिक युवक ने कार का शीशा खोला, सामने फुटपाथ पर चाय वाले से चाय और ब्रेड-पकौड़ा लिया, गुनगुनी ठंड का लुत्फ उठाया और बेफ्रिकी के अंदाज में चटनी सनी जूठी प्लेट कार का शीशा खोल बाहर फेंक दिया। जबकि सामने ही कूड़ादान ‘मुझे इस्तेमाल कर लेते’ की गुहार लगाता खड़ा था।

मैंने दो कदम आगे बढ़ कर उससे कुछ कहने को सोचा ही था कि वह कार स्टार्ट कर तेज आवाज में हनी सिंह के नए गीत ‘हां मैं अल्कोहलिक हूं…’ पर झूमता धूल उड़ाता वहां से निकल गया। अभी मैं सड़क पर फेंकी गई उस जूठी प्लेट की ओर देख ही रही थी कि तभी चलती बस से एक युवक ने कई संतरे का छिलका एक साथ खिड़की से बाहर फेंका, जो एक स्कूटर सवार के ऊपर गिरने से बचा।

यह हमारी दिल्ली के कुछ ऐसे रोजमर्रा के दृश्य हैं जिन्हें देख सिर शर्म से झुक जाता है। सड़क किनारे फेंकी गई खाली प्लास्टिक की बोतलें, खाने के दूसरे सामानों के पत्ते, पॉलिथीन की थैलियां और बदबूदार कचरे के ढेर जगह-जगह दिखाई दे जाएंगे। लोग अपने घर को साफ कर ‘हमें क्या’ की बेंफ्रिकी में कचरा बाहर फेंक देते हैं। एक ओर टीवी पर चर्चित अभिनेता ‘स्वच्छ दिल्ली, स्वच्छ भारत’ का अभियान चला कर देशवासियों को जागरूक करते हैं तो दूसरी ओर ऐसे दृश्य सभ्य नागरिकों की असभ्यता और लापरवाही को ही दर्शाते हैं। हम चुपचाप सब कुछ देखते रहते हैं।

दरअसल, नियमों, आग्रह, निवेदन और सरकारी अमलों से आगे बढ़ कर जनता को अपनी आदतें बदलनी होंगी। डर है कि कहीं यह अनुष्ठान केवल दिखावा बन कर न रह जाए या केवल सालाना रस्म-अदायगी! अपने मुहल्ले, शहर या देश को स्वच्छ रखने के लिए हमें दूसरों के संदेश की जरूरत क्यों पड़े! खुद को टटोलना होगा, आईने में धुंधली हो गई तस्वीर को पोंछ कर साफ करना होगा। फिर हमें नेताओं या सेलिब्रिटियों के दिखावे के अभियानों की जरूरत नहीं पड़ेगी।

कविता भाटिया

 

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