बाकी भाषाओं का तो वे जानें, हिंदी के लेखकों के साथ मुझे लगता है कि ऐसी स्थिति आ ही गई होगी, जो मेरे साथ है। कहानियों की कोई कमी नहीं है। जल में तैरती, भागती मछलियों की तरह। अनगिनत। ठीक वैसे, जैसे जहां जीवन (जल) है वहां कहानियां भी मछलियों की संख्या से कम नहीं। लिखने का इरादा करता हूं। संतोष से भर उठता हूं। कलम फड़फड़ाती है, लेकिन फिर वही खयाल। किसके लिए, कौन पढ़ेगा? महानगर के किसी भी बच्चे, नौजवान से पूछ लीजिए। ‘बस पढ़ लेता हूं। पांचवीं तक एक विषय था। अब तो लिख भी नहीं सकता। सच कह रहा हूं अंकल! कई साल से नहीं लिखा हिंदी में। स्कूल में तो मैम ‘फाइन’ कर देती थीं। कान उमेठ देती थीं बोलने पर। घर पर मम्मी-पापा भी नहीं चाहते थे। मैंने एक बार हिंदी में कविता लिखी, पापा ने बहुत डांटा। जब मैंने अंगरेजी में कविता लिखी तो मुझे सबने प्यार किया। नानाजी तो इतनी दूर से गिफ्ट लेकर आए थे। हां, बोल लेता हूं। डांस भी करता हूं, हिंदी गानों पर।’
सोचते-सोचते कलम एक तरफ लुढ़क गई है। कितने ही चेहरे घूम रहे हैं हिंदी साहित्यकारों के। अब तो दिल्ली में हर पखवाड़े निगमबोध जाना पड़ता है। फिर उनकी शोक सभाएं, बस हो गई साहित्य सेवा। कथाकार क्षितिज शर्मा उपन्यास छपने के इंतजार में ही चल बसे। कितनी मेहनत लगती है ऐसी रचना में, पर कौन मानता है! प्रकाशकों के आगे लंबी लाइनें लगी हैं छपवाने वालों की। कुछ कथाकार, कलाकार कह रहे थे प्रकाशक फोन ही नहीं उठाते। बोले न बोले सौ में निन्यानवे का यही रोना। पढ़ने वाले कम, लिखने वाले ज्यादा। रॉयल्टी शब्द तो हिंदी से गायब ही हो जाएगा, पंजाबी भाषा के संदर्भ में तीन दशक पहले खुशवंत सिंह ने कहा था कि वहां किसी को रॉयल्टी नहीं मिली।
अभी साहित्य अकादेमी में पता चला कि अमृतलाल नागर की जन्मशती मनाई जाएगी। बड़ा अच्छा लगा। आखिर सौ वर्ष में तो कोई नाम लेगा एक बार। इतना भी हो जाए तो कम नहीं। अभी नौ अगस्त को मनोहर श्याम जोशी को उनकी पत्नी ने अपने बेटों के पैसों से याद किया। सचमुच! चाय-पकौड़े पर कुछ लोग तो अभी जुट जाते हैं। भविष्य में शायद यह भी मुश्किल होगा। हजार आमंत्रण पर पचास श्रोताओं का औसत है। बहुत बड़ी-बड़ी बातें हुर्इं, लेकिन हिंदी लेखन पर नहीं। कैसा कृतघ्न है हिंदी समाज! जिस साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग की नाव में सवार हिंदी घर-घर तक पहुंची, उन साहित्यकारों, संपादकों को नई पीढ़ी जानती तक नहीं।
ऐसा नहीं कि सारा दोष राजसत्ता का है। राजनीतिक पार्टियों के साये में पले-बढ़े संगठनों ने भी कम नुकसान नहीं किया। कौन रोकता है इन्हें कि ये संगठन, विश्वविद्यालय, स्कूल धर्मवीर भारती, दिनकर, अमृतलाल नागर, पाश, सर्वेश्वर आदि को याद नहीं कर सकते! हिंदी भाषा की ताकत इन लेखकों में है। जनता इसे जानती है। मगर ये केवल उसी लेखक को याद करेंगे, जो इनकी पार्टी में रहा हो। पार्टी का लेखक जनता का लेखक कभी नहीं बन सकता। इसलिए हिंदी लेखक जनता से दूर होता गया।
दिमाग में दौड़ती कहानी फिर गायब हो गई है। पानी में तेजी से दौड़ती मछलियों की तरह। जब इतने बड़े-बड़े साहित्यकार गायब हो गए, उनकी किताबें गायब हो गर्इं, तो तुम्हें कहानी गायब हो जाने का अफसोस क्यों? चश्मे का नंबर तो नहीं बढ़ा, कमर तो नहीं झुकी, वक्त से पहले बुढ़ा तो नहीं गए, पांडुलिपि तो दर-दर की ठोकर नहीं खा रही, प्राण तो आराम से निकलेंगे, वरना कहानी, उपन्यास पूरा करने के चक्कर में इसी हिंदी प्रदेश में घूमते रहते और यमराज का भैंसा भी इंतजार में भूखा मर जाता। लिखना है तो किसी और भाषा में लिखें, जहां बच्चे इन किताबों को पढ़ें। पुरस्कारों से कोई भाषा नहीं बचती। लेखक और समाज भी नहीं।
पता नहीं कभी किस गफलत में वे रोज कागज काले करते थे। रात में सोने न सोने के बीच सिरहाने कागज पर अंधेरे में ही कुछ-कुछ नोट करते। लगता था, छपते ही दुनिया बदल जाएगी। दशकों तक इस भ्रम में जीते रहे। बदलता था तो बस घंटे दो घंटे या दिनभर का मूड। लेकिन सूरज छिपने के साथ ही छूमंतर। वाकई कितना खोखला था सब कुछ। लेकिन जीने के लिए कुछ भ्रम भी तो चाहिए। सोशल मीडिया उसी भ्रम की अगली कड़ी साबित हुआ। किताबों, अखबारों से मोहभंग हुआ तो उसी सोशल मीडिया की तरफ उम्मीद से देखने लगे, जिसकी सूरत से भी चिढ़ होती थी। लेकिन यह क्या लाइक तो करते हैं, पढ़ता एकाध ही है। अपने बच्चे तक नहीं देखते- कहने के बावजूद। ‘आप अंगरेजी में लिखा करो पापा! हिंदी अब नहीं चलेगी।’ चप्पे-चप्पे पर जब ऐसे इश्तिहार चिपके हों, तो कोई क्यों हिंदी में लिखे।
मगर सितंबर में तो हम चलाएंगे ही। सितंबर बुलावा देता फिर रहा है। हिंदी दिवस पर आने और गाने-बजाने के लिए!

