बदलती ऋतुओं के साथ धरती अपना परिधान बदलती है तो हमारी संगीत शैलियों के भी स्वर, शब्द, भाव बदलते जाते हैं। ऋतुओं का चक्र ही इस कृषि प्रधान देश का सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन संचालित करता है। चैत्र से वर्ष का प्रारंभ होने से कुछ पहले ही फागुन का उल्लास शास्त्रीय, उपशास्त्रीय और लोक संगीत सभी के स्वरों में डूबने-उतराने लगता है। फागुन के मदमाते उल्लास में डूबी ब्रजभूमि राधा-कृष्ण की अभिसारमय होली का रसिया आख्यान गुनगुनाती है तो अवध में राम-लक्ष्मण-सीता की स्वर्ण पिचकारियों से फूटते इंद्रधनुषी रंगों को राग काफी और पीलू के परंपरागत स्वरों में गाई होरी में पिरो दिया जाता है। गिरिजा देवी, पंडित छन्नूलाल मिश्र आदि की बनारसी शैली में पगी होरी में नायिका नायक से अनुनय विनय करती रह जाती है कि उसकी चुनरी रंग में सराबोर न करे, उधर पंडित जसराज के गूंजते हुए स्वर में राधा लालगोपाल से ‘अंखियन में रंग न डारने’ का आग्रह करती है। छन्नूलाल मिश्र को तो होली खेलते ‘ना साजन दिखें ना गोरी, दिखें तो भूत पिशाच और अघोरी’, वह भी श्मशान में ‘मसाने की होरी’ खेलते हुए। लेकिन मरघट में उपजा यह दर्शन भी होली के उल्लास को नहीं मार पाता। अभिसार, मस्ती और ठिठोली के स्वर फूटते हैं खेतों से खलिहान में पहुंचने को आतुर सुनहरी गेहूं की बालियों को देखकर। तैयार फसल की समृद्धि से उद्वेलित उमंग की मशाल पर भला ‘मसाने की होरी’ की राख कैसे छा सकती है!
फसल का यह चक्र पूरा होते ही ‘चइत’ या चैत्र आ जाता है। धन-धान्य खेतों से घर तक भगवत्कृपा के बिना कैसे पहुंचता! इसलिए कृतज्ञ गृहस्थ चैत्र में राम जन्मोत्सव मनाते हुए गीतों की हर पंक्ति में ‘हे रामा’ शब्द पिरो देता है। ‘हे रामा’ से अलंकृत चइता ज्ञान योग की तरफ झुका हुआ पुरुष होता है। लेकिन चैती शृंगार प्रधान होती है- नारी हृदय की कोमलता में भीगी हुई। भोर की मद्धिम बयार में अलसती नायिका कोयल की कूक सुनती है तो चैती के कोमल स्वर उसके होठों पर आ जाते हैं- ‘चैत मासे बोले रे कोयलिया हे रामा, मोरे अंगनवां।’ गिरिजा देवी उसके अंतर में पैठ कर गाती हैं ‘चैत मासे चुनरी रंग बे हो रामा, पिया घर अइहें’। बेला-चमेली की सुगंध में डूबे अभिसार के क्षणों की स्मृति नायिका के कपोलों को रक्ताभ कर देती है। माथे की ‘हेराई हुई’ बिंदिया वह कोठे पर खोजती है, अटरिया पर खोजती है, बस वहां ढूंढ़ने में लजा जाती है जहां उसके मिल जाने की संभावना है। पर शृंगार और अभिसार का ही दूसरा पहलू वियोग है।
रामजन्म से उल्लसित चैता और प्रिय के सान्निध्य में हुलसती चैती, दोनों जल्दी ही खेत-खलिहान के निष्ठुर सत्य से जूझेंगे। धीरे-धीरे चैत्र की बयार उग्र होने लगती है। फसल कटने के बाद सूने पड़े खेतों में धूल के बवंडर उठना शुरू हो जाते हैं। पच्छिम से आई ‘अन्धियरिया’ आम के पेड़ों पर झूलते टिकोरों को झकझोर कर बेरहमी से धरती पर पटकने लगती है। आतंकित फगुनिया बयार दो एक महीने में लौटती है तो अपने सीने में सूरज की धधक लेकर, काल बैसाखी का क्रुद्ध मुखौटा पहन कर। जेठ-बैसाख के महीनों में धरती को सूरज की तपन बेसुध कर देगी। खेतों का ममतामय आंचल शुष्क हवाओं में सूख कर उसके सीने को पत्थर की तरह जकड़ लेगा। अगली फसल की तैयारी तभी शुरू होगी जब इंद्र के दरबार में फिर से बादल के गायन और चपला के नृत्य का वार्षिक आयोजन होगा।
शृंगार के ऊपर पेट की भूख भारी पड़ती है। अभिसार के क्षणों की याद की पोटली सिर पर लादे चैती का रसिया नायक फिर से कलकत्ते में रिक्शा खींचने, धनबाद की कोयला खदानों की आंत में घुसी चट्टानें तोड़ने और सुदूर प्रांतों के कारखानों में अपने खून-पसीने को चांदी के सिक्कों में बदलने की मुहिम पर निकल पड़ता है। उधर चैत्र के महीने में चुनरी मंगाने वाली नायिका के स्वर की खनक करुणा में गोते खाने लगती है। निष्ठुर सच्चाइयां सामने आती हैं तो चैती पहाड़ी राग के कोमल स्वरों में पूछ उठती है- ‘अब सैंया का करे अइहें हो रामा, बितले चईतवा।’ इस बार धरती का परिधान दो-तीन महीनों के बाद बदलेगा जब सावन की घटाओं पर आरूढ़ होकर खमाज ठाट के मनमोहक स्वरों में सजी हुई कजरी आएगी। वियोगदग्ध चइती की जगह जब कजरी, सावन और झूला के गीत लेंगे तो सावन के झूलों में राधाकृष्ण और शंकर-पार्वती के संग हमारी नायिका और नायक भी झूलेंगे। चिढ़ाती हुई भौजाई पूछेगी- ‘कैसे खेलन जइबू सावन में कजरिया, बदरिया घेरी आई ननदी।’ खेती किसानी का चक्र फिर घूमेगा। धान के खेतों में समृद्धि का बीज बोने के लिए ही सही, प्रिय के आने के दिन फिर लौटेंगे। लेकिन होरी, चइता और कजरी के बीच के इस लंबे अंतराल में चैती के करुण स्वरों को धूल उडाती हवाओं के बीच कई महीनों तक गूंजते रहने से कौन रोक सकेगा।