एक दौर था जब वक्त को ‘पहर’ के जरिए आंका जाता था। बहुत सारे लोगों ने रेतघड़ी देखी होगी, जिसमें शीशे की एक डमरूनुमा आकृति में ऊपर से नीचे रेत गिरती दिखाई देती है और रेत के स्तर के आधार पर समय की गणना की जाती है। लेकिन मैंने धूपघड़ी के बारे में जब पहली बार सुना और जाना तो थोड़ा कौतूहल से भर गया। दरअसल, गांव में पांचवीं कक्षा तक का स्कूल था, लेकिन उसके बाद अपनी पीढ़ी में हम सभी दोस्त तीन कोस दूर पड़ोस के गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे जो उन दिनों आठवीं कक्षा तक हुआ करता था। तब आज जैसे कुकुरमुत्तों की तरह उग आए प्राइवेट स्कूल नहीं होते थे और न ही गांवों में सुबह-सुबह स्कूलों की बसें ही आती थीं। तब हम लोग पैदल ही स्कूल आते-जाते थे। पर उस समय भी सर्दियों में स्कूलों का समय दस बजे से शुरू होता था।
हम लोगों को स्कूल जाने से पहले बड़े-बुजुर्गों को ढूंढ़ने का चाव रहता था, क्योंकि उन्हें प्रणाम करने का बहाना लेकर असल में हम सबके भीतर उनसे समय पूछने का कौतूहल रहता था। फिर चाहे वे कोई छाछ बिलोती ‘भाभो’ या फिर दादी मां हों या धूप सेंकते दादाजी। बस किसी के भी दिख जाने भर की देर होती थी कि हममें से जो कोई भी पहले पूछ बैठता कि अभी कितने बजे हैं तो आंगन में एक नजर देख कर ही वे बता देते थे कि ‘अभी समय है, आराम से जाओ।’ यह सुन कर हम लोग हमेशा निश्चिंत हो जाते थे।
अब इंटरनेट का जमाना है। शहरों से इतर कस्बों तक में एसटीडी टेलीफोन बूथ अब बंद हो चुके हैं। हर किसी के पास अपना मोबाइल फोन है और जाहिर है उसमें घड़ी भी। लेकिन तब बड़े-बुजुर्ग लोग घड़ी नहीं पहनते थे। अगर घड़ी जैसी चीज होती भी थी तो कहीं-कहीं इक्का-दुक्का लोगों के पास। दरअसल, तब तक भूमंडलीकरण ने हमारे देश का दरवाजा खटखटाया ही था, लेकिन यहां के बाजार तब विदेशी वस्तुओं को बेचने के लिए खुले नहीं थे। गांव से जो लोग मजदूरी करने इराक, ईरान, सऊदी अरब वगैरह खाड़ी देशों में जाते थे, वे दो या तीन साल बाद लौटने पर अपने खास लोगों के लिए बतौर तोहफा घड़ी लेकर आते थे। या फिर आसपास के नजदीकी परिचित ने किन्हीं भावुक क्षणों में कहा हो कि यार जरा एक घड़ी इस बार हमारे लिए भी लेते आना, तो उसके लिए भी ले आते थे।
इसके अलावा, जब पड़ोस के गांव से कोई जाता तो उसके जरिए सूचना और देशी घी के लड्डू दोनों भेजे गए हों, तो उनके लिए भी घड़ियां और रेडियो वगैरह लाया करते थे। यानी जिनके पास किसी तरह से आई हुई घड़ी होती, वे वक्त के लिए उस पर निर्भर होते। लेकिन हमारे घरों में या आसपास आज भी ऐसे कई बुजुर्ग मिल जाएंगे जो कभी बिना किसी घड़ी को देखे वक्त लगभग सही-सही बता देते थे। धूप कहां तक पहुंची, वही उनके लिए घड़ी की सूई होती थी। इसके बाद वे माथे पर हाथ फेरते हुए आशीर्वाद देकर कहते- ‘नीम जितने बड़े और खरे बनो!’ फिर हम ‘आंखें मूंद कर’ उन पर विश्वास करते और खुशी-खुशी स्कूल की ओर चल पड़ते। हमारे स्कूल का रास्ता रेल की पटरियों से होते हुए गुजरता था। कभी-कभार एक पटरी पर चलते हुए हम उस पर संतुलन बनाने की कोशिश करते। फिर कभी कोई मालगाड़ी गुजरती तो किनारे खड़े होकर सारे डिब्बों की गिनती करते। तब हम सबकी नजरें हाथ में हरी और लाल रंग की छोटी दो झंडियां पकड़े एक सफेद कपड़े पहने व्यक्ति यानी गार्ड की तलाश करतीं जो हमेशा रेल के पिछले डिब्बे में होता था। जैसे ही वह आदमी हमें दिखाई देता हम सभी दोस्त हाथ से दो उंगलियों को कलाई पर मारते हुए इशारों में पूछते कि समय क्या हुआ है! रेल वाले सज्जन भी हमारी ओर मुस्कराते हुए देखते और फिर दोनों हाथों की उंगलियों के जरिये इशारों से वे हमें वक्त बता जाते। मजे की बात यह थी कि इस तरह पता करने पर भी बड़े-बुजुर्गों का बताया समय न जरा इधर होता, न उधर! जाहिर है, हम सब समय से स्कूल में पहुंच जाते, वह भी गुरुजी के आने से पहले।
दरअसल, यह सब उस धूपघड़ी का कमाल था जो छत के रास्ते आंगन में पसरती थी। इसके अलावा, झरोखों और रोशनदानों के जरिए कहीं धूप की लकीरें कम या ज्यादा होती रहतीं तो किसी तय स्थान पर धूप का पहुंचना भी समय की गणना करने में मदद करता। हमारे घरों के बुजुर्ग इस धूपघड़ी की भाषा क्या खूब समझते थे!