संगीता सहाय

सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हर स्तर पर गिरावट को महसूस किया जा रहा है। जिद और झूठे मान-अभिमान में डूबे लोग अक्सर बेसिर-पैर की बातों को लेकर लड़ते-झगड़ते, यहां तक कि एक दूसरे की जान लेने पर भी उतारू होते दिख जाते हैं। सड़कों, कार्यस्थलों, घरों में भी लोगों का छोटी-छोटी बातों को लेकर हाथापाई, गाली-गलौज, मारपीट आम हो गया है। हर बात मान-सम्मान का विषय बन जाता है। इसका असर कमोबेश हर उम्र के लोगों पर है, पर इससे सर्वाधिक ग्रसित नई पीढ़ी के युवा हैं, जिनके लिए उनका अहम ही सबसे बढ़कर होता जा रहा है।

ज्यादातर युवा हमेशा एक अजीब-सी तल्खी, अजनबीपन और आत्ममुग्धता के भाव से घिरे रहते हैं। ‘मैं’, ‘मेरी मर्जी’, ‘मेरी पसंद’ जैसे शब्द वेदवाक्य बन चुके हैं। गलत होते हुए भी अपने आपको सही ठहराना आदत बनती जा रही है। अपनी अहमियत और रसूख दिखाने के लिए वे किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। घर-बाहर हर तरफ ऐसे बदमिजाज युवाओं का सामना होता रहता है, जिनके लिए बड़े-बुजुर्गों और अन्य किसी का सम्मान कोई मायने नहीं रखता।

आज प्रत्येक व्यक्ति पहले से ज्यादा आत्मकेंद्रित हुआ है। इन स्थितियों ने एक तरफ सामाजिक व्यवस्था की बनावट को चोट पहुंचाया है, तो दूसरी ओर सामाजिकता के भाव को भी मर्माहत किया है। युवा भी इसी समाज का हिस्सा हैं और वे इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। यह विचारणीय है कि वे कौन-सी नकारात्मक संज्ञाएं थीं, जिन्होंने उन्हें ऐसा बनने के लिए बढ़ावा दिया।

इन प्रश्नों के जवाब में पारिवारिक, सामाजिक माहौल, परवरिश, परिवेश, आर्थिक स्थिति, बाजारवाद जैसे कई तथ्यों पर गौर किया जा सकता है। पर जिस एक तथ्य को हम अक्सर भूल जाते हैं, वह है जीवन से नैतिकता का लोप होते जाना। उन संज्ञाओं का खोते जाना जो मनुष्य को नैतिक आचरण करना सिखाती हैं। हम बात दादी-नानी की कथाओं की करें या माता की शिक्षाप्रद मीठी लोरियों की, कथा-कहानियों की किताबों की करें, विद्यालयों में होने वाले नैतिक चर्चाओं या इससे संबंधित अन्य गतिविधियों की।

कभी इन सभी भावात्मक, संस्कारपरक, मन और आत्मा को जगाने और जीवन को सही दिशा देने वाले तथ्यों का हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान हुआ करता था, जिन्हें आज के समय में अतीत और पिछड़ा घोषित कर दिया गया है। बेतहाशा आर्थिक उन्नति, अति आधुनिकता की चाहत, सिकुड़ता परिवार का दायरा, बच्चों के जीवन से छिनते सुंदर और स्नेहिल आंगन और बड़ों के आशीर्वाद के हाथ आदि हावी हो चुके हैं। जाहिर-सी बात है इसका असर भी होगा।

नैतिक शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से लोगों में नैतिक मूल्यों का संचार होता है। इन मूल्यों का मुख्य संचार स्थल घर और विद्यालय ही होता है। साथ ही अन्य तमाम सामाजिक स्थल भी नैतिकता के प्रवाह केंद्र हो सकते हैं। व्यक्तियों का समूह ही समाज बनाता है और समाज से देश बनता है। स्वाभाविक रूप से जैसा व्यक्ति होगा, समाज और देश भी वैसा ही बनेगा। किसी देश का उत्थान और पतन इस बात पर निर्भर करता है कि वहां के नागरिक कैसे हैं। नागरिकों को आचारयुक्त बनाने का आधार वहां की शिक्षा पद्धति होती है।

पारिवारिक और सामाजिक जीवन में मानवीय मूल्य, अर्थ, कर्म, धर्म सबके समुचित समावेश के लिए कुछ नियम बनाए गए हैं। इन्हें ही नैतिक नियम कहते हैं और उनके पालन करने के भाव को नैतिकता। नैतिकता मनुष्य की आधारभूत आवश्यकता है। उसके बिना मानवीय मूल्यों का क्षरण होना अवश्यंभावी है। बालक किसी भी देश और समाज का भविष्य होता है। उसका नैतिक विकास सामाजिक जीवन की स्वाभाविक देन होनी चाहिए, क्योंकि नैतिक विकास सामाजिक विकास से अलग नहीं है। बालक का जीवन जिस समाज में आकार लेता है, पलता-बढ़ता है, उसका आचार-व्यवहार नैतिकता से परिपूर्ण होगा। तभी एक बेहतर नागरिक का निर्माण संभव है।

वर्तमान में देश में अगणित विकासात्मक परिवर्तन हो रहे हैं। लोगों के रहन-सहन, विचार आदि में व्यापक बदलाव आए हैं। इस बदलाव में जहां बहुत सारे सार्थक और सकारात्मक तत्त्व हैं, तो वहीं कुछ निरर्थक और नकारात्मक भी। आवश्यकता यह है कि दोनों के भेद को पहचानते हुए मनुष्य के हित में जो सार्थक है, उसे ग्रहण किया जाए और निरर्थक को छोड़ दिया जाए। इसके लिए व्यक्ति के अंदर सही-गलत के पहचान की शक्ति यानी नैतिकता का संबल होना आवश्यक है। मनुष्य के चरित्र निर्माण, अच्छे गुणों और आदतों के निर्माण, जीवन में उचित मूल्यों के समावेश, सत्यम, शिवम और सुंदरम की समझ के लिए नैतिकता का होना आवश्यक है।

नैतिकता को पढ़ाया नहीं जा सकता, उसे ग्रहण किया जाता है। मनुष्य ज्ञानवान के साथ नैतिक भी बने, इसके लिए बालपन से ही उसके अंदर इसकी गहरी पैठ होनी चाहिए। एक श्रेष्ठ व्यवस्था के लिए उत्तम मनुष्य अनिवार्य है और स्थायी और उत्कृष्ट विकास की धुरी भी यही है।