जिगर मुरादाबादी ने क्या खूब कहा है- ‘हमको मिटा सके ये जमाने में दम नहीं, हमसे जमाना खुद है, जमाने से हम नहीं।’ यह खुद्दारी ही है, अहं और दंभ नहीं। यही बात एक कवि ने भी कही है कि ‘ऊपर कुछ और ऊपर गरुड़ को जाने दो, नीले अंबर का छोर उसे छू आने दो, यह पंखों का अभिमान नहीं जिज्ञासा है।’

यही जिज्ञासा बड़े काम करने के लिए प्रेरित करती है। जीवन के हर क्षेत्र में ऊंचे सपनों को मूर्तिमान करने के प्रयास में ही नए आविष्कार हुए। फिर भले ही वह उद्योग के क्षेत्र में हों या किसी नए प्रयोग करने की कोशिश में। वरना जीवन स्थिर ही बना रहता। विज्ञान ने नए साधन दिए, नए संयत्र बने और तरक्की हुई और सतत हो रही है। कल की चीज आज पुरानी हो जाती है और नई चीज की तलाश जारी रहती है। सभी के पीछे खुद्दारी ही प्रेरणा है।

असफल होना शर्म का कारण नहीं। असफलता के बाद सहमकर और हाथ पर हाथ रखकर बैठना जरूर व्यक्ति को निढाल करता है। नाकामी के बाद फिर से नई शुरुआत करने में ही सार्थकता है। कहा भी गया है- ‘इस तरह तय की हैं हमने मंजिलें, गिर पड़े, गिरकर उठे, उठकर चले।’ यह बहुत से कमजोर और लाचार लोगों को जीवन में संघर्ष करते हुए देखकर जाना जा सकता है।

‘न मैं गिरा न मेरी उम्मीदों की मीनार गिरी, मुझे गिराने की कोशिश में कई लोग बार-बार गिरे।’ ये भी कभी हार न मानने का ही जिक्र है। खुद्दार व्यक्ति न तो हार मानता है, न समझौता करता है, न झुकता है। वरना हम आदिम काल में ही होते। खेलों में भी सतत प्रयोग हुए और उन्हीं खिलाड़ियों को याद किया जाता है जिन्होंने अपनी ओर से अतिरिक्त प्रयास करके खेल को नई ऊंचाइयां दीं। यही नहीं, खेल उपकरणों में भी निरंतर नए प्रयोग हुए।

हार मान कर और असफल होकर मैदान छोड़ने वालों को तो पलायन करने वाला कहा जाएगा। ऐसे लोग हैं जरूर, पर दुनिया में बडा काम करना ऐसे लोगों के बस की बात नहीं है। खुद्दार व्यक्ति ऐसा नहीं करता। आपने अनेक ऐसे लोगों के बारे में सुना होगा, जिन्होंने छोटे स्तर से प्रारंभ करके आकाशीय ऊंचाइयां प्राप्त कीं। चाय बेचने वाला होटल का मालिक बना, घर-घर सामान पहुंचाने वाला करोड़पति बना। तांगा चलाने वाला मसाला उद्योग का मालिक बनकर बड़ी संपत्ति का मालिक बना।

दूसरी ओर कुछ वैसे लोग हैं जिन्हें काम के नाम से ही नफरत है। हम उन्हें आलसी, कामचोर और पड़े-पड़े सब कुछ होते हुए महज देखने वाले और दूसरों को सब कुछ करते हुए देखने पर खुद कुछ न करने का मजा लेने वाले भी कह सकते हैं। ऐसे लोग सबको सब कुछ करते हुए देखने पर खुद कुछ न करने के लिए अभिशप्त हैं। मैं एक ऐसे राजघराने से जुड़े व्यक्ति को जानता था।

वे जिस करवट सोते थे, दाढ़ी बनाने वाला व्यक्ति उसी के मुताबिक दाढ़ी बनाता था। दरअसल, कुछ लोगों को यह सामाजिक पृष्ठभूमि की सुविधा मिली होती है कि उन्हें बिना काम किए जीवन की सभी सुख-सुविधाएं मिलती रहती हैं। ऐसे साधन-संपन्न लोगों के सामने बिना कुछ किए जीवन निर्वाह की सुविधा मिली होती है और वे शायद इसीलिए वे काम करने को कमतर भाव से देखते हैं।

कई साल पहले एक निबंध पढ़ा था कि आलस्य के पक्ष में कभी कुछ न करने का मजा क्या होता है। यह सब बताया गया था। यानी आलस्य के पक्ष में भी बहुत कुछ कहा गया है। पर सवाल यह है कि इस तरह अगर चौबीस घंटे व्यक्ति आलस्य में पड़ा रहे तब भी वह कभी थकेगा ही। अंग्रेजी में कहा भी गया है कि अगर पूरे साल खेलने-कूदने की मौज-मस्ती चले तो खेलना भी उतना ही ऊबाऊ होगा, जितना कि मजा करना या पढ़ना होता है।

लार्ड टेनिसन ने एक काल्पनिक टापू पर रहने वाले उन लोगों की चर्चा की है, जिन्हें लोटस ईटर्स कहा जाता है और वे कभी काम न करने के लिए अभिशप्त हैं। इस कविता का मूल मंत्र है- अगर जीवन का अंत मृत्यु ही है तो काम किया ही क्यों जाए! जब काम करने वाले भी मरते हैं और काम न करने वाले भी तो काम करके मरने से अच्छा है बिना काम किए हुए मरना।

अपने-अपने तर्क हैं। टेनिसन ने एक ओर ‘लोटस ईटर्स’ जैसी आलस्य के पक्ष वाली कविता लिखी तो दूसरी ओर कार्य को प्रेरित करने वाली और सक्रियता का बोध कराने वाली ‘उलिसस’ जैसी कविता भी लिखी। ऐसा होता है। न जाने कौन-सा तर्क सुहा जाए! जीवन में एक ओर सतत प्रयास करने वाले और उत्तरोत्तर सफलता की ऊंचाइयां प्राप्त करने वाले लोग हैं जो कभी संतुष्ट होकर निढाल नहीं बैठते, तो दूसरी ओर वे लोग हैं जो कुछ करना ही नहीं चाहते। उन्होंने शायद स्वभाववश कोशिश ही नहीं की, वरना क्या मालूम वे भी कभी सफल होते। यही जिंदगी है। परस्पर विरोधी स्वभाव और आदतों से भरपूर।