जीवन की संरचना समूह के रास्ते बनती है। एक-एक कर अनुभव की जो कड़ी हमारे साथ जुड़ती है, वही धीरे-धीरे जीवन को रचती है। यह जीवन का क्रम चलता तो अकेले है, पर सफर में लोग जुड़ते जाते हैं और जीवन का परिक्षेत्र व्यापक हो जाता है। संसार को जानने के लिए हम आगे बढ़ते हैं और यह आगे बढ़ना संभव तब हो पाता है जब हम समाज में जाते हैं, समाज को देखते हैं और उसके अनुभव से कुछ न कुछ सीखते हैं। ज्ञान की प्रक्रिया एकतरफा नहीं होती। ज्ञान चारों तरफ से आता है, सभी से कुछ न कुछ सीखते हैं। यह लेन-देन ज्ञान की दिशा में एक सामाजिक और सचेत प्रक्रिया का हिस्सा है। यहां कुछ भी अनजाने में नहीं लेते जो कुछ भी ग्रहण करते, उसमें एक स्वीकार का भाव होता।

समाज की प्रक्रिया से जुड़ने के क्रम में संसार के हो जाते हैं और संसार हमारा हो जाता है। इस तरह व्यक्ति और समाज इस ज्ञान संसार में एक दूसरे को जोड़ते हुए जीवन को समृद्ध करते हैं। संसार को जीने के क्रम में एक साथ वह खुद से और समाज से बात करता है। समाज का सामान्य जीवन अनुभव उसके साथ जुड़ कर जीवन को न केवल समझदार बनाता है, बल्कि बड़ा बनाता है। मनुष्य अकेले नहीं रह पाता जीवन के लिए, सामाजिक सत्ता के लिए अपने अस्तित्व के लिए। उसके सारे क्रियाकलाप समाज के बीच होते हैं।

अकेले कोई भी दो-चार दिन रह सकता है। हो सकता है कि कुछ देर कोलाहल से मुक्त रहने के लिए अपने आपको समझने के लिए या जीवन को पढ़ने के लिए यह अकेलापन ठीक लगे। पर यह कुछ समय तक ही ठीक लगता है। बाद में अकेलापन काटने लगता है। जीवन पर भारी लगने लगता है। अकेलेपन से बचने के लिए यों ही आदमी चौराहे, बाजार और जहां कहीं चार-छह लोग बैठे होते हैं, वहां चला जाता है। इस तरह लोगों के बीच आना ही सामाजिक होने की कवायद है। लोगों के साथ रहना उठना-बैठना अच्छा लगता है। जीवन की समझ विकसित होती है।

जीवन संसार को जानने के लिए परिवार, समाज, समय और संसार की सांसारिकता मिल कर एक ऐसा अनुभव संसार रच देती है, जिससे जीवन किसी एक के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए आसान हो जाता है। यह जीवन का आसान होना ही तकनीक और लोकतांत्रिक चेतना का उदाहरण बनता है। एक न एक खोज करते यह वस्तु पदार्थ से लेकर विचार तकनीक और जीने का रास्ता हो सकता है। लोगबाग घर में कितने देर रहें! बाहर की खुली हवा ताजगी और बातों का आकर्षण कुछ ऐसा होता है कि चल पड़ते हैं।

अपनी-अपनी गली और सड़क पर चाय की थड़ी पर या बातों के ठीहे पर या जहां भी चार-छह लोग मिल कर अलाव जलाए हों, वहीं सब इकट्ठे हो जाते हैं। कोहरे धुंध और ठंड की चर्चा के साथ आसपास, समाज और देश, अखबारों की सुर्खियां, वाट्सऐप ‘विश्वविद्यालय’ की खबरें और जीवन भर की बातें यहां एक सिरे से चल पड़ती हैं। यहां ‘अलाय-बलाय’ भी रहते हैं, जिन्हें कुछ करना नहीं होता, बस पड़े रहते हैं। पर लोगबाग औह चौराहा इन्हें खपा लेता है। यह समाज की ताकत होती है कि वह अपने हर हिस्से को स्वीकार करता है।

समाज कुछ भी फालतू नहीं समझता। समय-समाज में हर किसी का एक न एक उपयोग होता है या समाज घिस-घिस कर व्यक्ति को उपयोगी बना देता है। हो सकता है कि वह कुछ भी न करे या कुछ भी न करना चाहता हो, पर समाज की सामूहिक चेतना उससे कुछ न कुछ करवा लेती है। यह समाज की कार्य-व्यवहार शक्ति है जो मनुष्य के भीतर मनुष्यता के भाव को जोड़ती है। जब आप सामाजिक शक्ति के रूप में काम करते हैं, यानी आपका कार्य समाज के लिए होता है तो उसका प्रभाव उस हर व्यक्ति पर पड़ता है जो वहां होता है।

वह दूर हो या पास, उस पर एक सामाजिक चेतना जन्म ले लेती है कि समाज के लिए हमें कुछ करना है। यह बात दीगर है कि सब अपने आपको खोल नहीं पाते कि सीधे समाज में आकर काम करें। इसीलिए अपना चौराहा, गली, मोहल्ला, पास-पड़ोस मनुष्य मात्र के बीच सामाजिकता पैदा करने के सामाजिक होने के सबसे बड़े प्रशिक्षण स्थल होते हैं।यह चौराहा है। यहां चाय की थड़ी और अलाव जीवन को समझने के ठीहे बन जाते हैं। यहां से बातों के क्रम में जीवन और समाज को समझने की युक्ति मिल जाती है।

यह जीवन और पड़ोस का चौराहा मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजी है, जहां से मानवीय संबंध और अनुभव की पूंजी लिए मनुष्य ज्ञान का सिरा पकड़े चलता है। यहां जीवन और सामाजिक चिंता पर एक साथ बात करते हुए सब सामाजिक और संवेदनशील होते हैं। मनुष्य की चेतना सामूहिक जीवन की होती है। समाज में हर तरह की बातें चलती हैं, जिससे जीवन चलता है। आखिर जीवन चलाना ही सामाजिकता है।