भागती-सी जिंदगी में आज इंसान और उसके बदलते परिवेश में सब चीजें तेजी से बदल रही हैं। सामाजिक मेल-मिलाप अब सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों पर सिमटता जा रहा है। इसने जिंदगी को ही नहीं, उससे जुड़ी हर चीज को नए रंग में रंग डाला है। मामूली लगने वाले आयोजन या त्योहार हों या फिर जीवन का कोई खास दिन, सोशल वेबसाइटों पर सब महत्त्वपूर्ण है। जन्मदिन जैसा निजी आयोजन शायद मैं भूल जाऊं, लेकिन आभासी दुनिया के दोस्त याद रखते हैं। इस सबके बीच ही मेरा जन्मदिन भी जाने कब गली-मोहल्लों से निकल कर विदेशों तक के दोस्तों के शुभकामना संदेशों की लंबी फेहरिस्त में तब्दील हो गया, पता ही नहीं चला। इन आभासी ही सही, पर प्रेम में पगे संदेशों से मन का कोना भीग जाता है और आंखें भर आती हैं। ये एहसास दिलाते हैं कि जीवन में कितनी ही आपाधापी हो, लेकिन हमारी इस आभासी दुनिया के साथी हमारी खुशी में शरीक हैं।
बहरहाल, कुछ समय पहले नवरात्र बीता था और वाट्सऐप पर आए फोटो और वीडियो संदेशों से निपट कर उन्हें हटा रही थी कि धनतेरस और दीपावली के संदेश फोन में पटाखे फोड़ने लगे। उनका जवाब देते हुए यह सोचती रही कि ये संदेश आखिर हमें कहां ले जाने की शुभकामना से भरे हैं। जाहिर है, अधिकतर में ‘लक्ष्मी’ की कृपा बरसने की कामना थी। इस पर यों ही मन के एक कोने में बैठी ‘सरस्वती’ ने पूछा कि क्या तुम्हें इतनी ‘लक्ष्मी’ चाहिए! इसके बाद मेरे भीतर ‘सरस्वती’ मुखर होने लगी! ‘लक्ष्मी’ और ‘दुर्गा’ भी अपने महत्त्व के साथ मेरी बहस को बढ़ा रही थीं।
लक्ष्मी यानी धन और वैभव, दुर्गा का मतलब शक्ति या बल और सरस्वती ज्ञान और विवेक का प्रतीक! मैंने अपने आसपास देखा। स्कूल से लेकर पार्क, घर और बाजार तक- हर तरफ ‘लक्ष्मी’ और ‘दुर्गा’ का बोलबाला दिखा, ‘सरस्वती’ कहीं किनारे खड़ी दिखी। बचपन में पढ़ा था- ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ और ‘समरथ को नहिं दोष गुसार्इं।’ तब भी सवाल उठता था मन में कि आखिर ऐसा क्यों! आज भी वही सवाल एक बार फिर मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं- आखिर ऐसा क्यों? तो क्या यह समाज बदला नहीं है? अगर नहीं तो तमाम लोग क्यों कहते हैं कि चीजें बदल गर्इं, वक्त बदल गया! क्या यह बदलाव आभासी दुनिया में हुआ है, हकीकत में नहीं?
दरअसल, इस समाज में ‘लक्ष्मी’ और ‘दुर्गा’ पहले भी ‘सरस्वती’ से ज्यादा महत्त्व पाती रही हैं। बल्कि आज जिनके पास ‘लक्ष्मी’ और ‘दुर्गा’ हैं, वे उनका उतना ही प्रदर्शन करने में लगे हैं। जबकि ‘सरस्वती’ अपनी पूरी शालीनता और गरिमा के साथ अब भी उसी रूप में हर जगह विद्यमान है।
छोटे-बड़े तमाम शहरों के अंधेरे में चमचमाते मॉल हैं। वहां विदेशों से पहुंचा खाने-पीने की चीजों का स्वाद अपनी लागत से चौगुनी कीमत पर बिक रहा है और हम उसे चाव से खा रहे हैं, क्योंकि हमारे लिए ये सेहत से ज्यादा उस संतोष का मामला होता है जो हमारे पैसों के प्रदर्शन को तुष्ट करता है। बच्चे जो देखते हैं, उसी लीक पर बढ़ निकलते हैं। जिस उम्र में हम जल जाने के डर से रसोई में जाने से कतराते थे, उस उम्र में हमारे बच्चों ने किचेन में जाकर ‘फास्टफूड’ पकाना सीख लिया है। दूसरी ओर, स्कूलों का मकसद वही है जो अभिभावकों का। स्कूल अब देश का भविष्य गढ़ने वाले कारखाने नहीं, बल्कि जेब में ‘लक्ष्मी’ और उसके बल पर ‘दुर्गा’ को साधने के हथकंडे सिखाने वाले अखाड़े बन चुके हैं।
आज धन-वैभव, शक्ति के सामने ज्ञान और विवेक की जगह गुम होती जा रही है। इसकी किसी को कोई चिंता नहीं है। लोगों को यह अंदाजा भी नहीं है कि धन और वैभव का प्रदर्शन कैसे बुद्धि और विवेक को कुंद कर देता है। इसी वजह से दुनिया में भ्रष्टाचार और बेइमानी बढ़ रही है और इंसानियत खत्म हो रही है। पैसे की यह अंधी भूख हमारे त्योहारों के असली मकसद को लील रही है। अगर ‘सरस्वती’ को हम अपने भीतर संवार कर रखते तो हमें अखलाक का मारा जाना और सुनपेड़ में जला दिए गए बच्चों की चीखें भी तड़पातीं और ऐसी घटना पर ‘कुत्ते को पत्थर मारने’ जैसे उदाहरण देने पर गुस्सा आता।
कुछ ही दिन पहले बीती दिवाली में कई दोस्तों ने पटाखों की कानफोड़ू आवाज और उसके धुएं से दम घुटने जैसी आबोहवा की शिकायत की। हमारा विवेक साथ होता तो इस धुएं से पर्यावरण को होने वाला नुकसान और दिवाली की जगमग में सड़क पर सोने वाले भूखे पेटों की भड़काती भूख भी हमें विचलित करती। इसलिए मेरी यही कामना है कि ‘लक्ष्मी’ और ‘दुर्गा’ की उपस्थिति हमारे जीवन में तो जरूरत भर ही रहे, लेकिन ‘सरस्वती’ का साथ बेहिसाब रहे। (रचना वर्मा)