अनीता जगदीश सोलंकी
कुछ साल पहले विज्ञापन जगत में एक प्रचार-सूत्र काफी चर्चित हुआ था- ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में!’ आज उसका विस्तार हम इस रूप में देख सकते हैं कि विश्व के नक्शे पर अब देशों का दायरा सिमट कर बहुत छोटा हो गया है। विज्ञान के रोज विस्तृत होते नए आयामों ने दुनिया को एक छोटे दायरे में ला खड़ा किया है। जहां तकनीकी रूप से देशों ने नई ऊंचाइयों को छुआ है, वहीं इसके कुछ असर भी अभी ही दिखाई देने लगे हैं।
‘दुनिया मुट्ठी में’ आने के बाद कहीं दूर के मंजिल तक पहुंचने के लिए रास्तों की तलाश के मौके तो खत्म हो गए हैं, लेकिन जीवन और प्रकृति की खूबसूरती की पहचान के मामले में हमारा युवा वर्ग दिशाहीन दिखाई पड़ता है। हमारे समाज में जो मानवीय मूल्यों की विरासत हमें संभाल कर रखनी थी, वे आज मरणासन्न अवस्था में दिख रही है।
हालत यह है कि आज सामाजिक दिखावे के शौकीन माता-पिता के पास वक्त नहीं है कि वे भावी पीढ़ी यानी अपनी ही संतानों को मानवीय मूल्यों, प्रकृति और नैतिकता का पाठ पढ़ा कर उन्हें अपने और समाज के लिए सुसभ्य और शालीन बना सकें। वे अपने ही रिश्ते के दरमियान घुलती कड़वाहट को सहनशीलता और सौम्यता में बदलने में असमर्थ हैं और इसका सीधा प्रभाव बच्चों के कोमल मन को प्रभावित कर रहा है। आखिर कैसे यह हुआ कि आज इससे समाज का कोई भी वर्ग अछूता नहीं है, मगर अपने ही आने वाले वक्त को देख पाने में नाकाम हो रहा है।
इंसान की रोजमर्रा की बदलती जिंदगी के उदाहरण से हर पल रूबरू हैं। जन्म के कुछ माह बाद ही छोटा बच्चा अभी ठीक से कुछ देखने-समझने लायक भी नहीं होता है कि उसके सामने स्मार्टफोन रख दिया जाता है। यहां कहने का मतलब यह है कि अब रिश्तों की जगह मोबाइल ने ले ली है, क्योंकि पहले जहां बड़े-बुजुर्गों का काम था बच्चों की देखभाल और सुरक्षा करना, आज बेटे-बहू तक को इसके लिए वक्त नहीं मिल पा रहा है। बच्चों के लिए जगह नहीं दिख रही है, मगर स्मार्टफोन में इनकी दुनिया बनाई जा रही है।
कहा तो यह भी जाना चाहिए कि छोटे बच्चों को समझ नहीं होती, वे अपने बड़ों पर निर्भर होते हैं, इसलिए उनके सामने मोबाइल या कुछ भी रख दिया जाएगा, वे उससे प्रभावित होने लगेंगे। लेकिन हमारे किशोरों, बड़ों की हालत क्या है आज? क्यों अब रिश्तों की जमीन एक मोबाइल में तैयार होने लगी है? ऐसा क्यों है कि तकनीक के विस्तार के युग में जहां लोगों को करीब आना था, वहां वे पहले से ज्यादा दूर हो गए हैं, रिश्तों के दरमियान खाई और भी चौड़ी हो चली है।
अब घरों में परिवार के नाम पर कहने को सदस्य तो हैं, लेकिन उनका आपस में मिलना-जुलना कम ही होता है। शाम के समय परिवार के सदस्य साथ होते थे और सब अपनी दिनचर्या का जिक्र करते थे, मगर आज के बदलते परिवेश में मोबाइल ने इंसान के वक्त को अपना गुलाम बना लिया है और लोगों के जज्बात को भी खत्म-सा कर दिया है। कहीं भी नजर घुमा कर देख लिया जाए, लगभग सबके चेहरे फोन के स्क्रीन में गड़े हुए। क्या कभी सोचा गया कि कभी ऐसा समय भी आएगा जब इंसान खुद को सबसे इतना दूर कर लेगा कि उसके करीब कोई रहे, न रहे, उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा?
सही है कि समय-समय पर जो भी नई तकनीक ईजाद होती है या नए-नए आविष्कार हमारे सामने आते हैं, वे हमारे बेहतर भविष्य के लिए होते हैं। मगर हम इंसान क्या करते हैं? उनका सही उपयोग न करके उनसे कुछ ऐसा करते हुए चलते हैं जो हमें जल्दी ही संकट में डाल देते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि हमने सोचने-समझने का काम हाशिये पर डाल दिया है और सिर्फ अपने लालच और निजी स्वार्थ को सर्वोपरि रखने लगे हैं।
आज मजबूत दिखते चमकते सतह के बरक्स हमारा सामाजिक ढांचा चरमरा गया है। नई पीढ़ी की जरूरतों में मानवीय मूल्यों की अहमियत शायद ही कहीं दिखती है। अगर कुछ दिखता है तो सिर्फ मोबाइल पर मिलने वाला आधा-अधूरा और कृत्रिम ज्ञान, जो जीवन को आगे बढ़ाने के बजाय उल्टी दिशा में ले जा रहा है। लोगों के जीवन में किताबों का सिलसिला कम या खत्म होता जा रहा है, क्योंकि इसकी जगह अब इंटरनेट से सुसज्जित मोबाइल ने ले ली है। अब इंसान के विचार, हावभाव उसका व्यवहार पहले जैसा शालीनता और चंचलता से भरा हुआ न होकर हर वक्त परेशानी में डूबा हुआ, अमर्यादित व तुनकमिजाजी से भर गया है।
ऐसे में एक सामाजिक और संवेदनशील नागरिक होने के नाते हम सबकी जिम्मेदारी बनती है कि प्रकृति रूप में हम मनुष्य की दुनिया को बचाने के बारे में अब भी सोचें। मोबाइल का उचित और सीमित प्रयोग ठीक है, मगर जरूरी वक्त बच्चों, परिजनों और दोस्तों को देना होगा। हमें परिवार के बीच रहकर आपसी रिश्तों की डोर को मजबूत करके फिर से एक स्वस्थ माहौल तैयार करना होगा, अपने ही भविष्य को बचाने और भावी पीढ़ी को एक मजबूत आधार देने के लिए।