मोहम्मद जुबैर
बचपन में माता-पिता अगर सबसे ज्यादा फिक्रमंद होते हैं तो इसलिए कि उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई सहज तरीके से हो, उनके व्यक्तित्व में उसी मुताबिक विकास हो। लेकिन इसी बीच जिस तरह होड़ खड़ी होती जा रही है, उसमें यह अब दिखने लगा है कि हम शिक्षा के मर्म को ही मारते जा रहे हैं। शिक्षा जिसका उद्देश्य था व्यक्ति को समझदार बनाना, जीवन की चुनौतियों से लड़ने का साहस पैदा करना, लक्ष्य प्राप्ति तक अपने संयम को साधे रखने का हौसला देना, विषम परिस्थितियों से खुद को बाहर निकालने का ज्ञान विकसित करना, कर्तव्य और अकर्तव्य में अंतर करने योग्य बनाना, दूसरों को पढ़ने और स्वयं को समझने की क्षमता निर्माण करना और शिक्षित व्यक्ति को उन तमाम मूल्यों एवं योग्यताओं से युक्त करना जो सामाजिक जीवन और विकास के लिए जरूरी हैं। लेकिन यह उद्देश्य हिल जाता है, जब विद्यार्थी या तथाकथित शिक्षित व्यक्ति मंझधार में ही जीवन के प्रति प्रतिगामी रुख अख्तियार कर लेते हैं।
ऐसे में ठहर कर सोचना चाहिए कि कौन उकसा रहा है तैरती नाव पकड़ने के लिए, जबकि शिक्षा तो हमें खुद नाव बनाना सिखाती है। व्यवस्था में ऐसी कौन-सी खामियां हैं, जो बच्चों को जीवन और कई बार दुनिया से मुंह मोड़ने के लिए उकसा रही है? अगर इसमें सुधार नहीं हुआ तो ये खामियां भविष्य के पैरों पर कुल्हाड़ी होगी।
एक तरह से व्यवस्थाओं ने शिक्षा के मायने सीमित कर दिए हैं। आज शिक्षा सिर्फ सरकारी और निजी क्षेत्र में नौकरी का पर्याय बनकर रह गई। अर्जित ज्ञान का मूल्यांकन सीमित कसौटियों पर किया जाने लगा है। विद्यार्थी बनावटी ज्ञान अर्जन की तरफ चल पड़े और अपने ज्ञान को सीमित कसौटियों के इर्द-गिर्द उलझा दिया। यह शिक्षा और समझदारी के बीच अंतराल को बढ़ा रहा है।
मसलन, ज्ञान की जांच के लिए कंप्यूटर आधारित वस्तुनिष्ठ ‘ओएमआर’ यानी आप्टिकल मार्क रीडर प्रणाली के बढ़ते प्रयोग ने विद्यार्थियों की बौद्धिक मेहनत को न्यून कर दिया है। विद्यार्थियों की भाषा और लेखन शैली तो कमजोर हो ही रही है, साथ में चिंतन, मनन भी क्षीण होता जा रहा है। ज्ञान जो जीवन में उतरना चाहिए था सिर्फ ओएमआर के पन्ने पर उतरने की जद्दोजहद में उलझ गया। हमारी शिक्षा संस्कृति एकल आयामी प्रतीत होने लगी है, जिसमें लक्ष्य होता है सिर्फ परीक्षा पास करना। वह चाहे अगली कक्षा में बढ़ने के लिए हो या नौकरी पाने के लिए।
आमतौर पर बच्चों की अभिवृत्तियों और रचनात्मकता के विकास को नजरअंदाज कर दिया जाता है; और अगर उनमें है भी तो उसे व्यवस्था तले दबा दिया जाता है जो रचनात्मकता के अनुरूप उनके जीवन के बेहतर विकल्प हो सकते थे। ‘चूंकि नौकरियां सीमित हैं, अगर नहीं मिली तो!’ यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण लग सकता है, लेकिन सच यह है कि विद्यार्थी भले ही भौतिक रूप से बचा रहे, मगर मानसिक रूप से उसकी स्थिति बेहद कमजोर हो जाती है। व्यवस्था ने उसके लिए विकल्प नहीं छोड़े हैं और उसे सिर्फ परीक्षा पास करने के लिए तैयार किया जाता रहता है।
हर विद्यार्थी में कुछ विशेष प्रतिभा या अभिरुचि छिपी होती है। उसे पहचानकर यदि उसे उस क्षेत्र में प्रशिक्षण दिया जाए तो अच्छे निष्पादन की बेहतर संभावनाएं बनती हैं। लेकिन हमने रुचि-रुझान और रचनात्मकता जांचने का कोई भी तंत्र विकसित नहीं किया। वहीं मां-बाप या समाज उस पर कृत्रिम या अपनी अभिवृत्तियां थोपने से नहीं चूकते। अगर यही व्यवस्था थामस एल्वा एडिसन पर थोपी गई होती तो आज जो रात को दिन बना दिया गया है, शायद यह संभव नहीं होता।
आज बच्चे अपने सपनों की जगह दूसरों के सपनों को अपना जीवन दांव पर लगाकर सिर्फ ढो रहे हैं। दरअसल, हम बच्चों को मशीन बनाने पर आमादा हैं, जिनसे सिर्फ सफलता की उम्मीद की जा रही है। बड़ा प्रश्न है कि हम असफलता के लिए क्यों तैयार नहीं हैं? जबकि यह स्वाभाविक है, मजबूती लाती है और जीने के कौशल सिखाती है। हम क्यों भूल जाते हैं कि परीक्षा में असफलता जीवन की असफलता नहीं हैं? हम क्यों नहीं बच्चों की हर स्थिति में उनके स्वागत के लिए समाज के दरवाजे खोलें रखें? हम क्यों भूल जाते कि असफलता जो एक दरवाजा बंद करती है तो हजार खोलती भी है?
सच यह है कि सामाजिक और शैक्षणिक व्यवस्था दोनों में सुधार की जरूरत है। 2020 में आई नई शिक्षा नीति निस्संदेह प्रगतिशील है, लेकिन कुछ बिंदुओं पर ध्यान अपेक्षित है। जैसे ‘ओएमआर’ से ज्ञान के मूल्यांकन को बढ़ावा देना भले जांच में लगने वाले समय को बचा दे, लेकिन ज्ञान की आत्मनिष्ठता को हतोत्साहित करेगा। अमेरिका में एक परीक्षा के माध्यम से अभिरुचि और रुझान जांच कर विश्वविद्यालय और कालेज में प्रवेश दिया जाता है। यहां विद्यार्थियों में असफलता की संभावना न्यून हो जाती है।
शिक्षण संस्थानों में रचनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए परीक्षा के अतिरिक्त तमाम कार्यक्रमों, जैसे वाद-विवाद, निबंध, चित्रकला, भाषण आदि प्रतियोगिताओं को बाध्यकारी किया जाए। मां-बाप और समाज बच्चों की सिर्फ निगरानी कर उन्हें उनकी रुचि के मुताबिक धारा के प्रवाह में बहने दें। असफलता के लिए भी सहज माहौल बने, जो विद्यार्थियों की उत्पादकता को बढ़ाएगा। यह सच है कि शिक्षा में बड़ी लकीर खींचकर राष्ट्र के विकास और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में बढ़त ली जा सकती है।