जाबिर हुसेन
जनसत्ता 13 अक्तूबर, 2014: ‘अबनाए जमाना मुझे कब ढूंढ़ेंगे/ गर ढूंढ़ने कहिए तो सबब ढूंढ़ेंगे/ ताजीस्त मेरी कद्र न समझेंगे बहार/ खो देंगे मुझे हाथ से तब ढूंढ़ेंगे।’ बिहार के शेखपुरा शहर के दरम्यानी हिस्से में अवस्थित पहाड़ की औसत ऊंचाई सैलानियों को डराती नहीं, फिर भी न जाने क्यों, वहां इन दिनों धक्के देने वाली भीड़ कम ही दिखाई देती है। पुरानी किताबों में इसे पेड़ों से आच्छादित पहाड़ की जगह सख्त पत्थरों वाला टीला कहा गया है। लेकिन यह इस पहाड़ का मुकम्मल सच नहीं है। इतिहास की गुफाएं गवाह हैं कि किसी जमाने में यहां कोई प्रतापी राजा हुआ करता था, जिसने इस पहाड़ पर अपनी सुंदर कन्या का स्वयंवर रचा था। पर कन्या ने तमाम दावेदारों की मांग ठुकराते हुए वरमाला एक शर्मीले चरवाहे के गले में डाल दी थी, जो राजा और उसके अमलदारों के आगे खौफसे कांप उठा था। कहते हैं, यह घटना तो इतिहास की चंद अंधी गुफाओं में दफन हो गई, मगर पहाड़ का नाम हमेशा के लिए इस ‘स्वयंवर’ से जुड़ गया।
इसी पहाड़ की तराई में अवस्थित दो जुड़वां बस्तियों में से एक में आज से डेढ़ सौ साल कबल उर्दू-फारसी के बाकमाल शायर और प्रखर गद्यकार बहार हुसैनाबादी (1864-1929) का जन्म हुआ। पूरा खानदान अदब और तहजीब की जिंदा मिसाल के तौर पर, पूरे मुल्क, बल्कि इससे बाहर भी, इज्जत की निगाह से देखा जाता था। अदब की तारीखें और शायर-अदीबों के तजकिरे इस खानदान की दास्तानों से भरे पड़े हैं। खान बहादुर, नवाब बहादुर जैसे खिताबों से अपनी शोभा बढ़ाने वाली कई-कई शख्सियतें इन जुड़वां बस्तियों में एक साथ मौजूद रहीं। बादशाह औरंगजेब, बादशाह हुमायूं, शेरशाह और मीर कासिम जैसे तारीख के कुछ मशहूर चेहरे भी इस खानदान की बहादुरी और वफादारी के किस्सों से बाखबर थे।
लेकिन इन किस्सों से अलग, इस खानदान की तारीख का एक रोशन अध्याय लगभग आठ सौ वर्षों की महान सूफी परंपरा से भी जुड़ा रहा है। इस परंपरा की कुछ निशानियां इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। इनमें एक हैं, मखदूब शाह शम्सुद्दीन फरियादरस, जिनका जन्म 1270 में रूम में हुआ और जो अपने वालिद के इंतिकाल के बाद मिस्र, सीरिया, इराक, ईरान होते हुए 1278 में हिंदुस्तान आकर फैजाबाद में बस गए। तब हिंदुस्तान के बादशाह गयासुद्दीन बलबन हुआ करते थे। शम्सुद्दीन फरियादरस ने शहर अयोध्या में एक खानकाह स्थापित कर इलाके भर में इल्म की रोशनी बिखेरी। 1388 में, एक सौ अठारह साल की उम्र में उनकी मौत हुई। उनका मजार अयोध्या के उस समय के एक मशहूर तालाब के किनारे एक बुलंद टीले पर बना, जो आज भी मौजूद है। इस परंपरा की दूसरी निशानी शाह मंजन शहीद थे, जो शेरशाह के जमाने में अवध से बिहार आए। जैसा कि उनके नाम से जाहिर है, बिहार आने के रास्ते में कुछ अज्ञात लुटेरों के साथ हुई जंग में उनकी शहादत हुई। परिवार में पत्नी बीबी बतूल उर्फ फूल और दो कमसिन बच्चे, शेख मुस्तफा और शेख जुनैद थे। बेवा मां अपने बच्चों के साथ शेखपुरा आ गई। बाद में शेख जुनैद की शादी बीबी रुकन से हुई, जो मखदूम शाह शुएब के बेटे शाह बहाउद्दीन की बेटी थीं। इल्म की दुनिया शाह मंजन शहीद को रूहानी तालीमात का खजाना मानती है।
सूफी परंपरा की एक और बेहद रोशन कड़ी शाह मुल्ला मुहम्मद नसीर थे, जो दरअसल शाह मंजन शहीद की नस्ल से थे। वे मखदूम शाह शुएब के नवासे भी हुए। एक विद्वान लेखक के तौर पर सारी दुनिया उनका लोहा मानती है। बिहार के सूफियों के हालात पर उनकी किताब ‘इल्मुल हकीकत’ को एक सनद का दर्जा हासिल है। उनकी किताबें दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। 1727 में शाह मुल्ला मुहम्मद नसीर का इंतिकाल हुआ। उन्हें तब के इजीमाबाद शहर में मुहल्ला बाग पातो में दफन किया गया। इसी सिलसिले के एक रोशन चिराग थे शाह मुहम्मद हाशिम बहार हुसैनाबादी, जिनका जन्म 1864 में हुसैनाबाद बस्ती में हुआ।
तेरह अक्तूबर, 2014 को उनके जन्म के डेढ़ सौ वर्ष पूरे हो रहे हैं। ‘स्वयंवर’ पहाड़ की तराई में उनकी मौत के लगभग पचासी वर्ष बाद, उनका मजार अतीत की गुमनामी से उभरा है और उनकी याद में एक ‘आस्ताने’ का निर्माण हुआ है। इतना ही नहीं, उनकी साहित्यिक कृतियों के सुरुचिपूर्ण संकलन और संपादन का काम भी पूरा कर लिया गया है। छह जिल्दों में उनकी रचनाएं उर्दू मरकज अजीमाबाद के सौजन्य से प्रकाशित हो चुकी हैं। उनका उर्दू-फारसी दीवान भी प्रकाशनाधीन है। एक पुस्तक ‘सकरात’ का उल्लेख जरूरी है। यह दरअसल बहार हुसैनाबादी की अपनी लिखी जीवनी है। कहने को यह उनकी जीवनी है, लेकिन इसमें पूरे तौर पर उन्नीसवीं सदी से लेकर बीसवीं सदी के शुरुआती दो दशकों का समाज अपनी ताकत और कमजोरियों के साथ उभरता दिखाई देता है। जमींदारों की जीवन-शैली, उनके पतनशील व्यवहार, उनके द्वंद्व, आपसी रंजिशें, तालीम के प्रति उनकी बेहिसी, गोया जिंदगी के सारे पहलू, जो बहार साहब की नजरों से गुजरे, इस किताब में उनका किस्सा लिखा है।
बहार साहब चाहते तो अपनी जीवनी में सूफी परंपरा की उन महान शख्सियतों के हवाले दे सकते थे, जिनका जिक्र मैंने इस आलेख के शुरू में किया है। लेकिन आत्म-स्तुति उनके स्वभाव को छू भी नहीं गई थी, इसलिए उन्होंने खुद को अपने ऊपर की दो-तीन पीढ़ियों के उल्लेख तक ही समेट कर रखा। किताब के आखिरी हिस्से में जो वंशावली है, वह दरअसल संपादक की अपनी दरियाफ्त और मेहनत है।
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