अपनों द्वारा भुला दिए जाने के दंश को भारत के बदनसीब आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर से ज्यादा किसने महसूस किया होगा। उनकी मशहूर गजल ‘न किसी की आंख का नूर हूं’ हर संवेदनशील हृदय को छू लेती है। अंतरात्मा से निकल कर लेखनी में और लेखनी से कागज पर उतरते हुए इस मिसरे का एक-एक शब्द इसे लिखने वाले की आंखों में खून का आंसू बन कर छलका होगा- ‘पए-फातिहा कोई आए क्यूं, कोई चार फूल चढ़ाए क्यूं… कोई आके शम्मा जलाए क्यूं, मैं वो बेकसी का मजार हूं…!’ जफर के उदास कलाम से टपकती हुई वेदना की याद आते ही घोर यथार्थवादी और व्यावहारिक किस्म के लोग भी दिवंगत परिचितों-मित्रों के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन करने के लिए चल पड़ते हैं। दिवंगत की स्मृति में आयोजित शोकसभा या प्रार्थना सभा में उपस्थिति की अनिवार्यता इसी सोच से उपजती है कि ऐसा न करने से जाने वाले की आत्मा को विस्मृति का दंश आहत करेगा। शोकसभा या अंतिम संस्कार में शामिल होने का अभिप्राय दिवंगत के प्रति आदर और स्नेह-प्रदर्शन मात्र नहीं, बल्कि उसके परिजनों को सांत्वना देना भी होता है। ठीक भी है। इंसान एक बार ही मरता है। उस अकेली मौत पर इतना साथ निभाना तो बनता ही है। इस सोच से उपजी बड़ी संख्या में लोगों की उपस्थिति से दिवंगत के बंधु-बांधवों को कोई असुविधा, अगर हो भी, तो सीमित ही रहती है।
लेकिन ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’! हर अच्छे सामाजिक व्यवहार की तरह हमदर्दी की भी एक सीमा होती है। केवल औपचारिकता और दिखावे के उद्देश्य से प्रेरित होकर किसी की हारी-बीमारी में उपस्थिति दर्ज कराने की बाध्यता हमारे समाज में एक बीमारी का रूप ले चुकी है। सहानुभूति प्रदर्शन अगर अपनों से लेकर परायों तक के लिए एक मुसीबत बन जाए तो उसका परित्याग ही बेहतर होगा। काश इतनी-सी बात लोकप्रिय हस्तियों और नेताओं के बीमार पड़ने पर अस्पताल के अंदर-बाहर जुटे प्रशंसक समझ पाते जो अक्सर अस्पताल प्रशासन के लिए समस्या बन जाते हैं। आए दिन किसी राजनीतिक के अपने समर्थकों के साथ किसी की बीमारी या दुख की घड़ी में सहानुभूति जताने अपने समर्थकों के साथ पहुंच जाने के मामले सामने आते रहते हैं। हाल में एक चर्चित युवा नेता अपने समर्थकों की भीड़ को साथ लेकर किसी दुर्घटना में आहत एक साथी को देखने के लिए बिहार के एक अस्पताल में पहुंचे। अस्पताल के सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें इतनी भीड़ साथ लेकर अस्पताल के अंदर जाने से रोका, ताकि वहां अन्य रोगियों, परिचारकों और अस्पताल के कर्मचारियों को असुविधा का सामना न करना पड़े। खबरों के मुताबिक, नेता जी के समर्थक इस बात से क्षुब्ध हो गए। फिर उनके और सुरक्षाकर्मियों के बीच मारपीट भी हुई। डॉक्टर भी इस चपेट में आए। समझा जा सकता है कि उस शोर-शराबे, तनाव और हिंसा के वातावरण में अस्पताल में भर्ती अन्य मरीजों की कौन कहे, खुद उस बेचारे पर क्या गुजरी होगी, जिसकी सहानुभूति में वह भीड़ अस्पताल में घुसना चाहती थी!
सच तो यह है कि ऐसी घटनाएं केवल कुछ लोगों के अहं की तुष्टि करने के लिए ही घटती हैं। मशहूर हस्तियों की कौन कहे, साधारण लोगों के पुरसाहाल भी रोगी के घर वालों से लेकर अस्पताल के प्रशासन तक की परेशानी बढ़ा देते हैं। इतना जानने के लिए चिकित्साशास्त्र का विद्वान होना आवश्यक नहीं कि किसी ऑपरेशन के बाद या तुरंत पहले सघन उपचार के लिए आइसीयू यानी इंटेंसिव केयर यूनिट में भर्ती मरीजों को शारीरिक-मानसिक थकावट से और कीटाणुओं के संक्रमण से बचाने के लिए गिने-चुने परिचारकों के अलावा अन्य लोगों से दूर ही रखा जाना चाहिए। तभी अच्छे अस्पतालों में आइसीयू में प्रवेश के लिए केवल एक परिचारक पास दिया जाता है। लेकिन सुरक्षा और सावधानी को चकमा देकर यह अकेला पास दर्जनों लोगों के हाथों में एक-एक करके घूमता है कि रोगी और उसके परिवार वालों के अहं की तुष्टि के लिए कि इतनी बड़ी संख्या में इष्ट-मित्र अस्पताल आए।
इससे भी अधिक हास्यास्पद होती है वह स्थिति, जब आगंतुक जानते हैं कि उन्हें मरीज से मिलने नहीं दिया जाएगा, फिर भी आते हैं। काम, चिंता और तनाव से परेशान मरीज के घर वालों के पास खड़े होकर उपस्थिति दर्ज कराते हैं और वापस आ जाते हैं। केवल इसलिए कि सब कुछ जानते समझते हुए भी अगर इस औपचारिकता को निभाने में ढीले पड़े तो आजीवन ताने सुनने पड़ेंगे कि वे रोगी को देखने अस्पताल नहीं आए। उधर परिवार वालों ने समझदारी दिखा कर इन हितैषियों को आने से मना कर दिया तो उन्हें भी आक्षेपों का शिकार बनना पड़ सकता है। यह सब तो अस्पताल में भर्ती होने की स्थिति में है। घर पर भी रोगी को देखने आने वालों को चाय-पानी के लिए पूछना घर वालों को कितना भारी पड़ जाता है, इससे हर कोई परिचित है। फिर भी उस असुविधा का ध्यान रखते हुए बीमार का हाल फोन पर पूछ कर दूर से ही हमदर्दी जताना हमारे समाज में असामाजिकता की निशानी माना जाता है। कितनी बारीक विभाजन रेखा है हमदर्दी और सिरदर्दी के बीच!