पिछले कुछ वर्षों में कुछ शब्दों ने अपना मूल अर्थ ही खो दिया है। सामाजिक सोच में आए बदलाव और चलन व व्यवहार में लगातार चलते रहने से शब्दों का मतलब ही बदल गया है। आप इसे एक तरह से शब्दों का अवमूल्यन भी कह सकते हैं। जब कोई शब्द वह मूल्य व अर्थ खो दे जिसके लिए उसका उपयोग होता था और व्यवहार के चलन के कारण वह बदनाम-सी स्थिति प्राप्त कर ले तो इसे आप गिरावट ही तो कहेंगे? मसलन एक शब्द है ‘रिकमेंड’ यानी सिफारिश। ‘रिकमेंड’ का शब्दकोश में अर्थ है- ‘पुशिंग फॉरवर्ड द राइट मैन’, अर्थात सही व योग्य व्यक्ति को आगे बढ़ाना। इसी कारण यह शब्द मूल्यवान था व सभी इसे इसी अर्थ में लेते थे। पर धीरे-धीरे ऐसा होता गया कि योग्य व सही व्यक्ति केबजाय गलत व नाकाबिल लोगों को आगे बढ़ाया जाने लगा। नतीजा यह हुआ कि जो ‘लेटर ऑफ रिकमेंडेशन’ महत्त्वपूर्ण पत्र हुआ करता था व उसी के आधार पर नियुक्ति तक हो जाती थी। उसे सिफारिशी पत्र समझ कर ऐसा माना जाने लगा कि जिसके लिए वह लिखा गया है, वह पात्र भले ही न हो, संपर्क वाला तो है ही। अत: उसे ही तवज्जो दी जानी चाहिए।

सिफारिशी व्यक्ति को पैसे वाला यानी उच्च स्तर पर अच्छा संपर्क रखने वाला व ताकतवर लोगों से मिलने-जुलने वाला अत: खुद भी ताकतवर माना जाने लगा। आज कोई भूले से भी नहीं मानता कि सिफारिशी व्यक्ति काम में भी होशियार या काबिल हो सकता है। कारण यही है कि पहले सिफारिश करने वाले लोग सोच-विचार के व जांच परख के पत्र लिखते थे, जबकि आज हर आने वाले को आगे बढ़ा दिया जाता है। बहुत-से लोग तो एक जैसे मजमून वाले सिफारिशी पत्र टाइप करवाकर उनकी फोटोकॉपी रखते हैं व आने वाला उसे लेकर अपना नाम खुद लिख लेता है। जनता से सीधे तौर पर जुड़े लोग अकसर यही करते हैं और इसी कारण लोकप्रिय भी हैं। लोग खुद खुशी-खुशी बताते फिरते हैं कि उनसे किसी ने नाम भी नहीं पूछा और सिफारिश का पत्र उन्हें आसानी से मिल गया। वे समझते हैं कि इसमें उनकी शान भी बढ़ती है व पत्र देने वाले की भी, भले ही असल में इसमें बदनामी ही हो रही हो। इस तरह एक अच्छा शब्द बदनाम हो गया।

नतीजा यह हुआ कि कभी सम्मानपूर्ण और दुर्लभ माना जाने वाला पत्र कालांतर में सिफारिशी व्यक्तियों की भीड़ में तब्दील हो गया। यह आंख बंद करके लोगों को सिफारिशी पत्र बांटने या फिर उनके लिए किसी से कान में कह देने का ही दुष्परिणाम था। आज यदि कोई कहे कि फलां-फलां जगह सिफारिशी लोगों की भरमार है तो आप यही मानेंगे कि वहां सभी नाकाबिल लोग भरे हैं। इस या उस के कहने से उपकृत किए हुए लोगों का समूह भला क्या काम करेगा? जैसे-तैसे भर्ती किए गए व्यक्ति को सिफारिशी कहना शब्द का अवमूल्यन ही तो है। सिफारिश के अलावा और भी ऐसे शब्द व प्रसंग हैं जिनका गलत उपयोग किया जाता है। यदि ऐसे व्यक्ति की स्मृति में जो जिंदगीभर ग़ैरकानूनी काम करता रहा हो और जिससे लोग आतंकित रहे हों, उसे मृत्यु के बाद ब्रह्मलीन बताना व उसकी याद में भजन संध्या, भागवत या भंडारा करना क्या उचित है? क्या यह शब्द व आयोजनों का गलत उपयोग नहीं है? इसी तरह शब्दों की पवित्रता व मूल भावना नष्ट हो रही है।

‘स्मार्ट’ शब्द के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। ‘स्मार्ट चॉइस’, ‘स्मार्ट स्कूल’, ‘स्मार्ट हॉस्पिटल’, ‘स्मार्ट बैंक’, ‘स्मार्ट सेविंग’ के साथ-साथ जब ‘स्मार्ट चाइल्ड-बॉय या गर्ल’ लगाया जाता है तो यह समझ पाना मुश्किल होता है कि इससे तेज-तर्रार, बुद्धिमान, चतुर और होशियार से मतलब है या कि ऊपरी या फौरी या सरसरी तौर पर आकर्षक नजर आने वाले गुण से आशय है। इसी तरह कभी दरियादिल व बड़े दिलवाले को ‘लार्ज हार्टेड’ कहा जाता था। आज यदि किसी का दिल बड़ा हो तो उसे गुण के बजाय शारीरिक दुर्गुण यानी विकार माना जाता है व डॉक्टर दिल के ऑपरेशन की सलाह देते हैं। स्मार्ट शब्द का प्रयोग खुद को बुद्धिमान व होशियार मानने वाले व चलते पुर्जे व्यक्ति के लिए भी होता है। इसी तरह कलेजे का टुकड़ा बहुत ही प्यारे व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है। हूबहू शाब्दिक अर्थ तो गुड़ का गोबर कर देगा। शब्दों के प्रयोग में संदर्भ, नीयत व आशय का भी खयाल रखा जाना चाहिए।

कभी-कभी अतिरेक में या जरूरत से ज्यादा उत्साह में आकर ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो हास्यास्पद लगते हैं। इसी प्रकार तंज कसते वक्त या किसी का मजाक उड़ाने के उद्देश्य से भी ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जो वास्तव में या तो द्विअर्थी होते हैं या चाशनी में डुबोए हुए कड़वे करेले के माफिक तकलीफदेह। व्यवस्था बिगड़ने तथा अधिकार का दुरुपयोग किए जाने से शब्द व उनके वास्तविक अर्थ व ध्येय का तालमेल गड़बड़ा गया है।