लोग जब प्यार में होते हैं तो सोचते हैं कि वे कुछ ऐसा कर रहे हैं जो पहले नहीं किया गया। एक-दूसरे से कुछ ऐसा बांट रहे हैं जो पहले नहीं बांटा गया। अक्सर प्रेम में कही गई बातों और किए गए व्यवहार में अद्वितीयता की मांग होती है। प्रेमी-प्रेमिका दावा करते हैं कि वे एक-दूसरे के लिए जो कुछ कर रहे हैं, वह अद्वितीय ही है। लेकिन ऐसा होता नहीं। प्रेम की भाषा और व्यवहार में सब कुछ पहले कहा या बरता जा चुका होता है। प्रेम में असामान्य भावों का वेग होता है। भावों की अतिरंजना के कारण भाषा और अभिव्यक्ति में भावुकता की प्रधानता होती है। प्रेम की इस अति भावनात्मक और भावुक अभिव्यक्ति की बाढ़ देखनी हो तो फेसबुक और उस पर मौजूद कवियों की भाषा में देखी जा सकती है। अतिरंजना और कुछ चुनी हुई अभिव्यक्तियों के चमत्कार से पूरी कविता बन जाती है, अलंकृत गद्य बन जाता है। लेकिन उस भावुक अभिव्यक्ति से काट कर पढ़ने की कोशिश करें, तो कुछ समझ नहीं आएगा कि कहने वाला कहना क्या चाहता है!
भावुकता, अतिरंजना और एक से प्रतिमानों के कारण प्रेमपूर्ण अभिव्यक्ति की सार्वजनीन, देशकाल से परे स्वीकृति होती है। किसी भी भाषा में प्रेम की अभिव्यक्ति होगी, वह अतिरंजना में अनायास जाती है। कोशिश करके प्रेम की सादी अभिव्यक्ति जिन कवियों ने करने की कोशिश की, वे प्रभाव में कम ठहरे। प्रेम की उन्हीं अभिव्यक्तियों को लोग याद और उद्धृत करते हैं, जिनमें सादगी हो या अतिरंजना, लेकिन वह चमत्कारपूर्ण हो। आप कलेजा मसोसने पर बाध्य हों। प्रेम की ऐसी अभिव्यक्ति अक्सर नाम-गाम से परे होती है। इसमें छिपाने और बताने का भाव एक साथ होता है। यह निजता की रक्षा के नाम पर महबूब का व्यक्तित्वहीन चेहरा पेश करती है। इस व्यक्तित्वरहित अभिव्यक्ति के फायदे हैं। इसमें प्रेम को लेकर गोपन भाव की रक्षा हो जाती है और प्रेमी हृदय अपनी बात भी कह जाता है। दिलचस्प है कि इस व्यक्तित्वरहित या अमूर्तन के कारण हर व्यक्ति आशिक या माशूक के भावों से अपने को जोड़ सकने के लिए स्वतंत्र होता है।
आजकल सोशल मीडिया पर अभिव्यक्तियों में एक नए किस्म की चीज दिखाई दे रही है, जिसे कह कोई नहीं रहा, लेकिन जानते सब हैं। देखने में आ रहा है कि सामान्य परिचय के बाद संबंध के सूत्र फेसबुक वॉल पर अभिव्यक्तियों में, विशेषकर सांकेतिक अभिव्यक्तियों में ढूंढ़े जा रहे हैं। किसी ने किसी को इनबॉक्स में कुछ कह दिया, भावुक अभिव्यक्ति की सार्वजनीन भाषा में कुछ वाक्य कह डाले और उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया से पूरा फेसबुक वॉल भर जाता है। ताक-झांक का सिलसिला चल पड़ता है। इसमें बताने की स्पष्टता उतनी नहीं होती, जितना छिपाने का छद्म!
प्रेम की भाषा का सबसे मजेदार तथ्य यह है कि जो भावुक सार्वजनीन अभिव्यक्ति इसकी जान है, वही इसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी। यह खोखली भाषा है। इसमें सार-तत्त्व नहीं। इसे किसी भी प्रेम संबंध में किसी के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है। इस तरह की प्रेमिल अभिव्यक्तियों जैसे ‘सौ साल पहले हमें तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा’ या फिर ‘तुमने पुकारा और हम चले आए, जान हथेली पर ले आए रे’ का जन्म इसी बोध से होता है कि यह भाषा युगों-युगों से दोहराई जा रही है। इसमें नया कुछ नहीं। हिंदी फिल्मों ने इस भाव और भाषा को सबसे ज्यादा व्यापारिक तरीके से भुनाया है। विरोधाभासी है, पर कहना होगा कि राधा और श्याम के प्रेम को पूजने वाले इस देश में प्रेम यानी स्वस्थ स्त्री-पुरुष संबंध की जगह उतनी ही कम है।
आधुनिक औद्योगिक समाज में मास-कल्चर ने प्रेम के भाव का सबसे बड़ा व्यापार खड़ा किया है। उसका कारण है कि आधुनिक समाज तो कल-कारखानों के आगमन ने खड़ा कर दिया पर आधुनिक चेतना, विशेषकर आधुनिक व्यक्ति और आधुनिक समाज की चेतना अभी भी कायदे से पैदा नहीं हुई। कानाफूसी और लोक-निंदा के जरिए स्त्री-पुरुष के सर्वोत्तम संबंधों पर चर्चा करना आम बात है। इस पर पोंगापंथियों द्वारा नैतिकता का खोल और चढ़ा दिया जाता है। बंद समाजों में प्रेम और प्रेम की भाषा में जो इतना दोहराव और रूढ़ता दिखाई देती है, अति भावुक कृत्रिम अभिव्यक्तियों को लेकर जो अनुशंसा भाव बना रहता है, उसका कारण है कि उस समाज में स्त्री-पुरुष के जीवन में निजता और परस्परता के अवसर और उसका बोध उतना ही कम है। निजी और व्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत नगण्य है। साथ ही सामाजिक जीवन में स्त्री और पुरुष की सहभागिता की बात संवैधानिक और सैद्धांतिक स्तर पर भले मान लिया गया हो, व्यवहार में पिछड़ेपन ने पीछा नहीं छोड़ा है।
आधुनिक जीवनशैली की दृष्टि से बंद और कट्टर समाजों में प्रेम की अभिव्यक्ति का रूढ़ तरीका और भी महत्त्वपूर्ण होता है। इस तरह की अभिव्यक्तियां कि आकाश का चांद तुम्हारा चेहरा है, तालाब में डूबता सूरज तुम्हारी परछार्इं, तारे तुम्हारी आंखें और फलां तुम्हारी नाक, अलां तुम्हारी जुल्फें और ढिमका तुम्हारी बाहें, अमूर्त अभिव्यक्तियां हैं, जो कोरी कल्पना और लंबी हांकों के बिना नहीं बनतीं। लोग सोचते हैं कि इन अभिव्यक्तियों के सहारे कविता बन रही है, हो सकता है, बन रही हो। पर वे कितनी घिसी-पिटी, अंतर्वस्तुविहीन और रूढ़ हैं, यह जानना भी जरूरी है।