प्रेमपाल शर्मा
नाम हरीचंद। काम ठेली पर हरी सब्जी बेचना। वह अक्सर अंधेरा होने के बाद ही मिलता था। गिनी-चुनी सब्जी, पालक, मेथी, सरसों या कभी बैंगन। मयूर विहार के सामने यमुना के खादर में ठेके पर लिए हुए खेत में उसने यही सब्जियां उगा रखी हैं। मैंने कहा भी कि और भी सब्जियां रख लिया करो, जैसे आलू, मिर्च, टमाटर, तो उसने बड़ी निश्ंिचतता में सिर हिलाया कि ‘नहीं! मेरा गुजारा इसी से हो जाता है। दिन भर खेती का काम करता हूं और शाम को यहां ठेली लगा लेता हूं। लेकिन यहां भी कहां लगाने देते हैं! मैंने पुलिस वालों को कहा भी कि हमसे कुछ पैसे ले लो, लेकिन एक जगह रहने दो, पर कोई नहीं सुनता!’
हफ्ते भर बाद दूसरी सड़क के कोने पर उसकी ठेली थी। कुरेदने पर बताया कि सिरसा गया था। मैंने कहा- ‘सिरसा क्यों, तुम तो बदायूं के रहने वाले हो।’
उसने पूरी बात बताई कि बच्चे की आंख में कुछ परेशानी है और सिरसा में सतगुरु के आश्रम में गया था। मैंने उसे समझाने की मुद्रा अख्तियार की- ‘अरे भई, दिल्ली में रहते हो तो किसी अस्पताल में दिखाओ!’ उसने बात एक तरफ झिड़क दी और कहा- ‘वे बहुत बड़े संत हैं और उनके आश्रम में बड़े-बड़े डॉक्टर हैं। उन्होंने कुछ दिन बाद आने के लिए कहा है। आंख की पुतली बदली जाएगी। परमात्मा सब ठीक कर देगा। उसके चेहरे पर यकीन की लकीरें पढ़ी जा सकती थीं। मैंने पूछा- ‘क्या यहां किसी डॉक्टर को दिखाया?’ उसने बताया कि ‘खूब दिखाया, एम्स भी गया। बड़ी मुश्किल से नंबर आया। उन्होंने बताया कि बीस हजार रुपए लगेंगे और इंतजार करना पड़ेगा। फिर यहीं चिल्ला गांव की एक महिला मिली। उन्हीं के कहने पर मैं वहां गया। अब सब ठीक हो जाएगा।’ मैंने जब पूछा कि क्या तुम्हारी बाबा से मुलाकात हुई है तो वह चकित-सा मुझे देखने लगा और बोला- ‘वे तो अंतर्यामी हैं। ऐसे हर कोई से थोड़े ही मिलते हैं।’
हरियाणा के बाबा रामपाल के संदर्भ में जो खबरें सामने आर्इं, उन सबके पीछे भी सबसे बड़ा कारण बीमारी, गरीबी और अशिक्षा ही है। शिवपाल बीमार रहता था। आसपास के छोटे बाबाओं ने उसके ऊपर किसी देवी का असर बताया, फिर किसी और भक्त ने उसे रामपाल के आश्रम तक पहुंचा दिया। उसने रामपाल के कारनामे टीवी पर देखे थे और मुफ्त में बांटी जाने वाली ‘ज्ञान गंगा’ जैसी किताब भी पढ़ी थी। बस तीन बच्चों के साथ आश्रम पहुंच गया, हो गया भक्त। संगरूर की रहने वाली मिल्कियत कौर को अस्थमा है। देश में डॉक्टर तो हैं नहीं, और हैं भी तो निजी अस्पतालों का खर्चा गरीब कैसे उठाए। पहुंच गई आश्रम। थोड़ा-बहुत फायदा हुआ होगा। बस हो गई भक्त।
हजारों किस्से ऐसे हैं और इसमें से नब्बे प्रतिशत शारीरिक, मानसिक बीमारों के। क्या आपको नहीं लगता इस देश की गरीबी, अव्यवस्था इन बाबाओं की प्राणवायु है? अगर एक तर्कसंगत शिक्षा इन्हें बचपन में दी गई होती और सारे अस्पताल भी ठीक से काम कर रहे होते, जो एक स्वतंत्र राज्य का कर्तव्य भी है, तो क्या इन बाबाओं के पास पहुंचने की नौबत आती! बाबाओं की पकड़ सिर्फ इन मरीजों तक सीमित नहीं है। उनके बच्चों में भी ऐसा ही विश्वास पनपने लगता है और यही होती है बाबाओं की ऐसी पैदावार। अगले दिन मैं फिर उस हरीचंद की ठेली पर गया और बोला- ‘मैं चलूं आपके साथ तो मुझे भी भक्त बना लेंगे?’ उसने कहा- ‘क्यों नहीं, सेवा कोई भी कर सकता है! उनके यहां कई तरह के सेवक हैं। अब तो दिल्ली में भी उनका आश्रम बन गया है।’
धर्मांतरण की गूंज अभी भी फिजा में है। क्या इसके पीछे इस देश की करोड़ों जनता की गरीबी और बदहाली नहीं है जो एक उम्मीद से उनके पास खुद पहुंचती है? यह अलग बात है कि इनके विश्वास और भक्ति का ये बाबा शोषण करते हैं, लेकिन क्या राजनेता भी लोकतंत्र के नाम पर इन गरीबों की अज्ञानता का ऐसा ही शोषण नहीं करते रहे हैं?
क्या इनके नारे और घोषणा पत्रों को भी ऐसे ही लालच की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? हमारे धर्म के पंडितों, मुल्लाओं, बुद्धिजीवियों, राजनेताओं को जितनी धर्म की चिंता रहती है, क्या कभी इन्होंने गरीबों की हारी-बीमारी की खबर ली? बाबाओं और धर्मांतरण की पूरी बहस को हरीचंद, शिवपाल और मिल्कियत कौर के दर्द को जाने बिना नहीं समझा जा सकता। मेरे बार-बार डॉक्टर के पास जाने को कहने पर हरीचंद हाथ जोड़ कर बोला- ‘साब, आप किसी डॉक्टर को जानते हों, तो कह दीजिए!’ क्या मैं ‘हां’ करने की स्थिति में हूं?
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